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    पहाड़ के रंग, जागरण के संग: चांचड़ी की धुन पर थिरकता हिमालय, यहां पांचवां वेद है लोक साहित्य

    Updated: Wed, 01 Oct 2025 02:46 PM (IST)

    चांचड़ी उत्तराखंड हिमालय का एक प्रसिद्ध नृत्यगीत है जो अरुणाचल प्रदेश से लद्दाख तक फैला है। यह प्रकृति के प्रति प्रेम सामुदायिक एकता और जीवन की चक्रीय प्रकृति का प्रतीक है। चांचड़ी नृत्य में महिला-पुरुष गोलाकार घेरा बनाकर लोक वाद्ययंत्रों के साथ गीत गाते हैं। इसे विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लोक साहित्य को पांचवां वेद कहा गया है।

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    उत्तराखंड हिमालय का सर्वाधिक प्रचलित नृत्यगीत है ‘चांचड़ी’ या ‘चांचरी. Jagran

    दिनेश कुकरेती, जागरण। लोक के कंठ से जब लय में सुर फूटे तो लोकगीत बन गए। लोकगीतों को शास्त्र की मर्यादाओं में नहीं बांधा जा सकता। वह तो पहाड़ी नदी की तरह हैं, जहां जैसी जमीन मिली, उसी के अनुरूप ढल गए और जब नृत्य इनके साथ जुड़ा तो नृत्यगीत हो गए।

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    उत्तराखंड हिमालय का ऐसा ही सर्वाधिक प्रचलित नृत्यगीत है ‘चांचड़ी’ या ‘चांचरी’, जो अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख तक किसी न किसी रूप में मौजूद है। ‘चांचड़ी’ का अर्थ है लयबद्ध गीत के साथ किया जाने वाला नृत्य, जिसकी उल्लास के हर मौके पर छटा बिखरती है। स्वयं में आनंदानुभूति ही इसकी विशिष्टता है, इसकी महानता है।

    उत्तराखंडी लोक में प्रकृति का हर स्वरूप देवतुल्य

    चांचड़ी का स्वरूप अखिल हिमालयी है। यह नृत्य उस लोकसंस्कृति का नेतृत्व करता है, जो प्रकृति के हर स्वरूप को देवतुल्य मानती है।

    यह धार (दोनों ओर ढलान वाली पहाड़ी), खाल (पहाड़ी के शीर्ष पर समतल जगह), डांडी-कांठी (ऊंची-नीची चोटी), गाड-गदेरे (बारहमासी-बरसाती नाले), जंगल, खेत-खलिहान, पौन-पंछी (परिंदे), जीव नमान (समस्त जीव-जंतु) यानी हर चीज के साथ मनुष्य वृत्ति, यहां तक कि आंछरी (परी), ऐड़ी (लोक देवता), वन देवी और देवताओं को भी इन गीतों में अभिव्यक्ति मिली है। यही चांचड़ी नृत्यगीत को विशिष्टता है। 

    जीवन की चक्रीय प्रकृति के प्रतीक

    चांचड़ी नृत्य में पारंपरिक वेशभूषा पहने महिला-पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर गोलाकार घेरा बना लेते हैं और लोकवाद्यों की मधुर लहरियों पर गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। इन गीतों में देवस्तुति, लोक परंपरा, सामाजिकता, प्रकृति प्रेम, शृंगार, विरह, समसामयिक, हास्य-व्यंग्य आदि सभी रंगों का समावेश हुआ है। इस तरह चांचड़ी नृत्य सामुदायिक एकता, प्रकृति प्रेम और जीवन की चक्रीय प्रकृति का प्रतीक है।

    ऊंचाई बढ़ने के साथ धीमी होती चली जाती है गति

    आस्था एवं विश्वास से लेकर प्रेम, शृंगार, परिस्थिति, नारी व्यथा, खुद (याद), प्रकृति, पर्यावरण, सैन्य जीवन जैसे प्रतिबिंबों की प्रतिकृति हैं चांचड़ी नृत्यगीत। यह जरूर है कि गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में इस नृत्यगीत के रंग अलग-अलग हैं, लेकिन हर रंग एक ही भाव समाया हुआ है। मुक्त-शैली वाले इस नृत्य में प्रतिभागी एक गोल घेरा बनाते हुए हाथ थामे रहते हैं, लेकिन पर्वतीय भूगोल के अनुरूप ऊंचाई बढ़ने के साथ इसकी गति धीमी होती चली जाती है।

    प्रकृति एवं परिस्थिति के अनुसार बदले नाम, भाव नहीं

    उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में वहां की प्रकृति एवं परिस्थिति के अनुसार चांचड़ी को चांचरी, झुमैलो, दांकुड़ी, थड़िया, झोड़ा, हाथजोड़ी, न्यौल्या, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, भ्वींन, रासौं, तांदी, छपेली, हारुल, नाटी, झेंता जैसे नामों से जाना जाता है। बावजूद इसके अहम बात यह है कि हर क्षेत्र में नृत्य के साथ अनिवार्य रूप से गीत गाने की परंपरा है।

    ध्यान देने वाली बात यह है कि इन गीतों की रचना किसी गीतकार ने नहीं की, बल्कि घसियार्यों (घास काटने गई महिलाएं), ग्वेर छ्वारों (गाय-बकरी चुगाने वाले युवा), दाना-सयाणों (बूढ़े व उम्रदराज), दूर ब्याही बेटियों आदि के कंठ से जो सुर फूटे, वही कालांतर में लोकगीत बन गए।

    समूह से हुई चांचड़ी की उत्पत्ति

    चांचड़ी ऐसा नृत्य है, जिसे पारंपरिक मेलों, संस्कारों, देव कार्यों और नवरात्र जैसे शुभ अवसरों पर किया जाता है। इस नृत्यगीत में अक्सर धार्मिक आराधना, प्रकृति प्रेम और लोक जीवन से जुड़े विषयों का वर्णन होता है। खास बात यह कि महिलाओं की भागीदारी के बिना चांचड़ी नृत्य हो ही नहीं सकता।

    चार लोग मिलकर एक गीत नहीं लिख सकते, लेकिन चांचड़ी के साथ ऐसा नहीं है। यह समूह से उपजा और समूह का ही होकर रह गया। लोक की विशेषता ही यह है कि वह भीतर से स्वत:स्फूर्त बहता है और फिर लोक में ही एकसार हो जाता है।

    पांचवां वेद है लोक साहित्य

    देखा जाय तो लोक साहित्य, लोक और वैदिकीय संस्कृति का वाहक है, इसलिए उसे पांचवां वेद कहा गया है। हालांकि, लोक साहित्य बिल्कुल नई विधा है, लेकिन लोकगीतों की उत्पत्ति पीढ़ियों पूर्व हो गई थी। विशेष यह कि चांचड़ी गीतों में ‘टेक’ का महत्वपूर्ण योगदान है।

    ‘टेक' का भले ही कोई अर्थ न हो, लेकिन इसके बिना गीत भी अर्थहीन हो जाते हैं। ‘टेक’, लोकगीतों को सुंदरता प्रदान करता है। इसलिए जीवंतता यदि कहीं है तो वह लोकगीतों में ही है। लोक ऐसा विलक्षण समंदर है, जो तमाम नदियों को आत्मसात करता है और फिर ऐसी ही तमाम नदियों को जन्म भी देता है। लोक कभी मरता नहीं, बल्कि वह तो तब तक जीवित रहेगा, जब तक कि धरती पर अंतिम मनुष्य है।