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    उत्तराखंड में बैंबू देगा ग्रामीणों की आर्थिकी को सहारा, जानिए पूरी योजना

    By Raksha PanthriEdited By:
    Updated: Fri, 12 Feb 2021 08:17 AM (IST)

    बांस के जंगल अब उत्तराखंडियों की आर्थिकी को भी मजबूत बनाएंगे। बांस के उत्पादों की बाजार में मांग को देखते हुए वन विभाग ग्रामीणों को रोजगार देने की योजना बना रहा है। इसके लिए बांस के प्लांटेशन से लेकर उत्पादों के निर्माण को ट्रेनिंग दी जाएगी।

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    उत्तराखंड में बैंबू देगा ग्रामीणों की आर्थिकी को सहारा।

    विजय जोशी, देहरादून। बांस के जंगल अब उत्तराखंडियों की आर्थिकी को भी मजबूत बनाएंगे। बांस के उत्पादों की बाजार में मांग को देखते हुए वन विभाग ग्रामीणों को रोजगार देने की योजना बना रहा है। इसके लिए बांस के प्लांटेशन से लेकर उत्पादों के निर्माण को ट्रेनिंग दी जाएगी। जल्द ही असम और अन्य पूर्वी राज्यों का दौरा कर विभाग के अधिकारी बांस उद्योग की बारीकियां सीखेंगे।

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    उत्तराखंड में बांस के जंगलों को बढ़ावा देने के लिए वन विभाग की ओर से कार्ययोजना तैयार की जा रही है। पर्यावरण के लिहाज से भी लाभकारी बांस अब ग्रामीणों के लिए रोजगार का साधन भी बनेगा। बांस के हस्तनिर्मित उत्पादों को बाजार में उतारकर ग्रामीण आजीविका का साधन बना सकते हैं। वन विभाग की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में बांस के प्लांटेशन के साथ ही समितियों का गठन किया जाएगा। जिसमें वन पंचायतों के तहत आने वाले गांवों को जोड़कर 'बैंबू प्रोडक्ट' तैयार करने की ट्रेनिंग दी जाएग, जिसके बाद वे उत्पादों को बाजार में बेच सकेंगे। इस योजना से वनों के साथ ही ग्रामीणों को भी लाभ मिलेगा। यह छोटे और मझोले उद्यमों के क्षेत्र के विस्तार का भी आधार बन सकता है। इसके लिए उत्तराखंड बैंबू एंड फाइबर डेवलपमेंट बोर्ड से भी सहयोग लिया जाएगा।

    ऑक्सीजन का बेहतर जरिया है बांस

    बांस का पेड़ 4-5 साल में परिपक्व हो जाता है, जबकि ठोस लकड़ी वाले किसी पेड़ को परिपक्व होने में करीब 50 साल लगते हैं। वहीं, बांस की पर्यावरण पर बुरा असर डाले बगैर कटाई की जा सकती है। बांस का पेड़ हर प्रकार की जलवायु में पनप सकता है। हर साल इसके एक पेड़ से 8-10 शाखाएं निकलती हैं। अन्य पेड़ों की तुलना में बांस का पेड़ 35 प्रतिशत अधिक ऑक्सीजन वायुमंडल में छोड़ता है और 20 प्रतिशत कार्बनडाई-ऑक्साइड अवशोषित करता है।

    पूर्वी राज्यों में बांस की ढेरों प्रजातियां

    भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार बांस की आधी से ज्यादा प्रजातियां अकेले पूर्वी भारत में पाई जाती हैं। इन राज्यों में बांस के बने बर्तन, मछली पकड़ने के जाल, मर्तबान, गुलदस्ते और टोकरियां बनाने की उत्कृष्ट सांस्कृतिक परंपरा रही है।

    प्रमुख मुख्य वन संरक्षक(हॉफ) राजीव भरतरी ने बताया कि पूर्वी राज्यों में बांस के उत्पादों की परंपरा और बाजार से हमें सीख लेनी चाहिए। उत्तराखंड में भी बांस उद्योग की अपार संभावनाएं हैं। यहां बांस के जंगलों को बढ़ावा देने के साथ ही ग्रामीणों को रोजगार से जोड़ा जाएगा। इसके लिए असम मॉडल को अपनाया जाएगा।

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