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शंकराचार्य ने कालड़ी से केदार तक एक सूत्र में बांधा देश, 32 वर्ष की अल्पायु में केदारनाथ पहुंच ली थी चिर समाधि

करीब 1200 वर्ष पहले जब आवागमन के साधन सीमित थे तब आदि शंकराचार्य (788-820 ईस्वी) अपने जन्म स्थान कालड़ी (केरल) से पैदल चलकर बदरी-केदार जैसे दुरुह हिमालयी क्षेत्र तक पहुंचने में सफल रहे। तो चलिए आपको बताते हैं कि इसके पीछे उनका उद्देश्य क्या था...

By Raksha PanthriEdited By: Published: Wed, 03 Nov 2021 08:43 AM (IST)Updated: Wed, 03 Nov 2021 08:43 AM (IST)
शंकराचार्य ने कालड़ी से केदार तक एक सूत्र में बांधा देश।

जागरण संवाददाता, देहरादून। आज से लगभग 1200 वर्ष पहले जब आवागमन के साधन सीमित थे, तब आदि शंकराचार्य (788-820 ईस्वी) अपने जन्म स्थान कालड़ी (केरल) से पैदल चलकर बदरी-केदार जैसे दुरुह हिमालयी क्षेत्र तक पहुंचने में सफल रहे। यह महायात्रा शंकराचार्य ने भारतीय धर्म-दर्शन व अध्यात्म को नई ऊर्जा से भरने के उद्देश्य से की थी।

महज छह वर्ष की आयु में वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण शंकर ने संन्यास की राह चुनी और 32 वर्ष की अल्पायु में समाधिस्थ होने तक भारत का कोना-कोना लांघ लिया। आदि शंकराचार्य को अद्वैत का प्रवर्तक माना जाता है। उनका कहना था कि आत्मा व परमात्मा एक ही हैं। अज्ञानतावश हमें दोनों भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। उन्होंने उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ, पश्चिम में द्वारका-शारदा पीठ, दक्षिण में शृंगेरी पीठ और पूर्व में जगन्नाथपुरी गोवद्र्धन पीठ की स्थापना की।

प्रख्यात इतिहासकार डा. शिव प्रसाद नैथानी लिखते हैं कि शंकराचार्य 12 वर्ष की आयु में काशी से धर्म प्रचार करते हुए हरिद्वार पहुंचे। यहां गंगा तट पर पूजा-अर्चना कर उन्होंने ऋषिकेश स्थित भरत मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु का शालिग्राम विग्रह स्थापित किया। शंकराचार्य ऋषिकेश से 35 किमी दूर व्यासचट्टी में गंगा पार कर ब्रह्मपुर (वर्तमान में बछेलीखाल) पहुंचे। ब्रह्मपुर से देवप्रयाग पहुंचकर संगम पर उन्होंने स्तवन रचना (गंगा स्तुति) की और फिर श्रीक्षेत्र श्रीनगर (गढ़वाल) की ओर बढ़ गए। वह अलकनंदा नदी के दायें तट मार्ग से रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग होते हुए नंदप्रयाग पहुंचे।

डा. नैथानी के अनुसार यहां से शंकराचार्य जोशीमठ पहुंचे और वहां कल्प वृक्ष के नीचे साधना में लीन में हो गए। जोशीमठ में ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना के बाद वह बदरीनाथ पहुंचे। यहां उन्होंने न केवल बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया, बल्कि श्रीविष्णु की चतुर्भुज मूर्ति को नारद कुंड से निकालकर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया। बदरिकाश्रम में ही शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर 'शांकर भाष्य' की रचना कर भारत भूमि को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसके बाद उन्होंने भगवान शिव के धाम केदारनाथ पहुंचकर चिर समाधि ले ली। जून 2013 में केदारनाथ त्रासदी के दौरान आदि शंकराचार्य की समाधि भी सैलाब की भेंट चढ़ गई थी। धाम में इसी स्थान पर अब भूमिगत समाधि का निर्माण किया गया है।

कर्नाटक मे तैयार की गई आदि शंकराचार्य की 12 फीट ऊंची प्रतिमा

आदि शंकराचार्य समाधि स्थल पर स्थापित की गई प्रतिमा कर्नाटक के मैसूर में में तैयार की गई। 12 फीट ऊंची और 35 टन वजनी यह प्रतिमा कर्नाटक के मैसूर में तैयार की गई। कृष्ण शिला से निर्मित इस प्रतिमा को पिछले दिनों पहले गौचर और इसके बाद वायुसेना के हेलीकाप्टर की मदद से केदारनाथ पहुंचाया गया। पांच नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस प्रतिमा का अनावरण करेंगे। केदारनाथ में शंकराचार्य समाधि का निर्माण कर रहे वुड स्टोन कंस्ट्रक्शन कंपनी के केदारनाथ प्रभारी मनोज सेमवाल ने बताया कि मूर्ति को समाधि स्थल पर स्थापित करने के लिए कर्नाटक से पांच मूर्तिकार आए।

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