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उत्तराखंड में बंद होंगे करीब सात सौ सरकारी स्कूल, जानिए क्या है वजह

उत्तराखंड में सरकारी स्कूलों में ताले लगने का सिलसिला जारी है। हाल में शिक्षा मंत्री ने प्रदेश के लगभग डेढ़ हजार स्कूलों को विलय करने का फरमान जारी किया है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sat, 07 Mar 2020 02:43 PM (IST)Updated: Sat, 07 Mar 2020 02:43 PM (IST)
उत्तराखंड में बंद होंगे करीब सात सौ सरकारी स्कूल, जानिए क्या है वजह
उत्तराखंड में बंद होंगे करीब सात सौ सरकारी स्कूल, जानिए क्या है वजह

देहरादून, आयुष शर्मा। सरकारी स्कूलों में ताले लगने का सिलसिला जारी है। हाल में शिक्षा मंत्री ने प्रदेश के लगभग डेढ़ हजार स्कूलों को विलय करने का फरमान जारी किया है। इसके चलते सात सौ के करीब स्कूल बंद होने जा रहे हैं। स्कूल बंद हो रहे है घटती छात्र संख्या और पलायन के कारण।

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वहीं, पलायन हो रहा है मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण। सरकार शिक्षा के स्तर को उठाने के दावे जरूर करती है लेकिन समस्या की जड़ को समाप्त करने का प्रयास नहीं कर रही है। अगर गांव में मूलभूत सुविधाएं जुटाई जाए तो छात्र संख्या घटने के कारण स्कूल बंद करने की नौबत नहीं आएंगी, क्योंकि पलायन पर अंकुश लगेगा और स्कूलों को बच्चे मिलेंगे और युवाओं को रोजगार। पर्वतीय क्षेत्रों में अगर विकास करना है तो हमें सबसे पहले सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान देना होगा जिससे राज्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा। 

बोर्ड परीक्षा ही सब कुछ नहीं 

प्रदेश के सरकारी स्कूलों में बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो गई हैं। परीक्षा शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री मोदी की तर्ज पर प्रदेश के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने भी बच्चों के साथ परीक्षा पर चर्चा की। बोर्ड परीक्षा में शामिल हो रहे छात्र-छात्राओं के लिए ऐसी चर्चाएं एक सकारात्मक पहल है। परीक्षाओं को लेकर परीक्षार्थियों के मन में हमेशा से डर की भावना रही है। कारण, बोर्ड परीक्षा में फेल हो गए तो अगली क्लास में दाखिला नहीं मिल सकेगा। बोर्ड परीक्षाओं को लेकर बनाए गए पूर्वाग्रह अक्सर बच्चों में तनाव पैदा कर देते हैं। अब जब खुद प्रधानमंत्री और प्रदेश के शिक्षा मंत्री कह रहे हैं कि 'परीक्षा ही सब कुछ नहीं' तो इससे परीक्षार्थियों का मनोबल बढ़ेगा ही। लेकिन इसके साथ अभी इस बात पर भी लंबी चर्चा की जरूरत है कि परीक्षा के बाद क्या। क्यों कि असली जंग तो इसके बाद ही शुरू होती है। 

घोषणा ही न रह जाए गैरसैंण 

गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा होने के बाद से चारों तरफ उत्साह का माहौल है। लेकिन आम जनता के मन में यह डर अभी बाकी है कि, कहीं ये केवल राजनीतिक घोषणा तो नहीं। डर होना लाजिमी भी है क्योंकि राजनीति चमकाने के लिए अक्सर सरकारें घोषणाएं कर उन्हें भूल जाती हैं। सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा कर इसका श्रेय तो ले लिया साथ ही बड़ी जिम्मेदारी भी उठा ली है।

इस जिम्मेदारी को पूरा करना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। दूसरी ओर सबसे बड़ा सवाल ये कि, गैरसैंण में केवल चार-छह दिन का विधानसभा सत्र चलेगा या पूरी गर्मियों के महीने मंत्री व अधिकारी वहां पर रह कर काम करेंगे। मूलभूत सुविधाओं का टोटा झेल रहे गैरसैंण में नेता और अधिकारी वर्ग अगर टिक कर काम लें तो पहाड़ का विकास होना तो तय है। अब देखना होगा कौन अपनी जिम्मेदारी कितनी निभा पाता है। 

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दो राजधानी का मॉडल कितना कारगर 

प्रदेश में अब दो राजधानियां होंगी। दो राजधानियों का मॉडल उत्तराखंड में कितना कारगर साबित होगा ये बड़ा सवाल है। गैरसैंण, देहरादून जितना सुलभ तो किसी के लिए नहीं है। न पलायन रोकने के नाम पर वोट बटोरने वाले नेताओं के लिए न ही अधिकारियों के लिए। गैरसैंण जैसे दूरस्थ क्षेत्र को बतौर राजधानी विकसित करने में नए सिरे से भारी खर्चा करना होगा।

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साथ ही दूसरी राजधानी को चलाने के लिए भी सरकार को अलग से खर्चा करना पड़ेगा।  इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा कर सभी चुनौतियां स्वीकार ली हैं। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश धर्मशाला को दूसरी राजधानी बना कर यह प्रयोग कर चुका है। ऐसे में एक बार दोबारा दोनों राज्यों के बीच नए सिरे से तुलना शुरू हो जाएगी। अब देखना होगा कि उत्तराखंड सरकार इस मॉडल पर खुद को कितना कारगार साबित कर पाती है। 

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