विलुप्ति के कगार पर हुड़का
भीम सिंह चौहान, चकराता
समय के साथ जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर में भी बदलाव की बयार चल रही है। एक समय जौनसार बावर में खुशी का जश्न मनाने के लिए हुड़का वाद्य यंत्र का अहम स्थान था। मगर अब यह वाद्य यंत्र विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुका है, जिसका सबसे बड़ा कारण बजाने वाले ही नाममात्र के रह गए हैं।
जौनसार बावर को देश दुनिया में अनूठी लोक संस्कृति के लिए विख्यात बनाने में लोक वाद्य यंत्रों का भी महत्व रहा। समय के साथ पारंपरिक अंदाज भी बदलने लगा। लोक संस्कृति का संवाहक कहलाने वाले हुड़का वाद्य यंत्र अब कम दिखाई देने लगा है। जौनसारी दीवाली में बुडियात के दौरान बजने व खुशी के पलों यानि पुत्र प्राप्ति के दौरान बधाई के समय बजने वाला हुड़का वाद्य यंत्र की आवाज कम सुनाई देती है। डिमऊ गांव निवासी संतराम चौहान, कोटा गांव के जालप चौहान का कहना है कि हुड़का ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसकी थाप पर लोग नाचने लग जाते हैं। जौनसारी संस्कृति के साथ पुराना नाता होने के बावजूद युवा पीढी इसे सीखने को आगे नहीं आ रही। जौनसारी दीवाली में बुडियात के दौरान एक साथ सात आठ हुड़का बजने से पंचायती आंगन में अलग ही धमक सुनाई देती थी, अब इसकी संख्या घट गयी है। हुड़का वाधक पंतीराम, नीदंरू, संता बताते हैं कि वाद्य यंत्रों के संरक्षण व संवर्धन के लिए सरकारी स्तर पर कुछ नहीं हुआ। कलाकारों के लिए कोई प्रोत्साहन योजनाएं भी नहीं हैं, जिस कारण इस वाद्य यंत्र का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है।
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हुड़का वास्तव में पौराणिक लोक वाद्य यंत्र है। बिना संरक्षण के यह वाद्य यंत्र त्योहारों व गांव के आगन से गायब हो रहा है। संस्कृति विभाग को चाहिए कि इस यंत्र को संरक्षित करें, उनके संस्था के पास आज भी सात हुड़का हैं , जिन्हें कार्यक्रमों में बजाया जाता है।
नंदलाल भारती निर्देशक जौनसार बावर सांस्कृतिक लोक कला मंच चकराता।
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