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    सात युद्ध लड़ने वाली विश्व की एकमात्र वीरांगना तीलू रौतेली

    By JagranEdited By:
    Updated: Thu, 08 Aug 2019 06:30 AM (IST)

    जागरण संवाददाता चम्पावत उत्तराखंड बहुत से वीर-वीरागनाओं की प्रसूता भूमि रही हैं। जिन्होंने ...और पढ़ें

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    सात युद्ध लड़ने वाली विश्व की एकमात्र वीरांगना तीलू रौतेली

    जागरण संवाददाता, चम्पावत : उत्तराखंड बहुत से वीर-वीरागनाओं की प्रसूता भूमि रही हैं। जिन्होंने अपने अदम्य शौर्य का परिचय देकर अपना नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया हैं। ऐसी ही एक महान वीरागना का नाम हैं तीलू रौतेली। जिनके नाम पर प्रदेश में प्रतिवर्ष कुछ महिलाओं को पुरस्कृत भी किया जाता हैं। प्रतिवर्ष आठ अगस्त को इनका जन्मदिवस मनाया भी जाता हैं। तीलू रौतेली एक ऐसा नाम हैं जो रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चांदबीबी, जियारानी जैसी पराक्रमी महिलाओं में अपना एक उल्लेखनीय स्थान रखता हैं। 15 से 20 वर्ष की आयु में सात युद्ध लड़ने वाली तीलू रौतेली संभवत विश्व की एक मात्र वीरागना है।

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    राजकीय महाविद्यालय के इतिहास प्रो. डॉ. प्रशांत जोशी बताते हैं कि तीलू का मूल नाम तिलोत्तमा देवी था। इनका जन्म 8 अगस्त 1661 को ग्राम गुराड़, चौंदकोट (गढ़वाल) के भूप सिंह (गोर्ला)रावत तथा मैणावती रानी के घर में हुआ। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे। 15 वर्ष की उम्र में तीलू की सगाई हो गई। इसी उम्र में गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवारबाजी के सारे गुर सिखा दिए। जोशी बताते हैं कि उस समय गढनरेशो और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढनरेश मानशाह वहा की रक्षा की जि़म्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर स्वयं चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया, परंतु इस युद्ध में वह अपने दोनों बेटों, और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।

    कुछ ही दिनों में काडा गाँव में कौथिग (मेला) लगा और इन सभी घटनाओं से अंजान तीलू कौथिग में जाने की जिद करने लगी तो मां ने रोते हुये जमकर ताना मारा और भाइओं की मौत का बदला लेने को कहा। मां के कटु वचनों को सुनकर उसने कतयूरियों से प्रतिशोध लेने तथा खैरागढ़ सहित अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को आक्रमणकारियों से मुक्त कराने का प्रण किया। उसने आस-पास के सभी गांवों में घोषणा करवा दी कि इस बार काडा का उत्सव नहीं अपितु कतयूरियों का विनाशोत्सव होगा। शस्त्रों से लैस सैनिकों तथा बिंदुली नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए तीलू ने प्रस्थान किया।

    स्वामी गौरीनाथ ने गोरिला छापामार युद्ध की रणकला तीलू को सिखाई। इसी गोरिल्ला युद्ध के दम पर वह कत्यूरियों पर विजय प्राप्त करती आगे बढ़ती रही। पुरुष वेश में तीलू ने सबसे पहले खैरागढ़ को कत्यूरियों से मुक्त कराया। खैरागढ़ से आगे बढ़कर उसने उमटागढ़ी को जीता। इसके पश्चात वह अपने दल-बल के साथ सल्ट महादेव जा पहुंची। छापामार युद्ध में पारागत तीलू सल्ट को जीत कर भिलंग भौण की तरफ चल पड़ी, परंतु दुर्भाग्य से तीलू की दोनों अंगरक्षक सखियों को इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। कुमाऊं में जहा बेल्लू शहीद हुई उस स्थान का नाम बेलाघाट और देवली के शहीद स्थल को देघाट कहते हैं। तीलू प्रत्येक गढ़ को जीतने के बाद वहां की व्यवस्था अपने वफादार चतुर सैनिकों के हाथों सुरक्षित करके ही आगे बढ़ रही थी।

    चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित करके तीलू अपने सैनिकों के साथ देघाट वापस लौट आई। कलिंका घाट में फिर उसका शत्रुओं से भीषण संग्राम हुआ। सराईखेत के युद्ध में तीलू ने कत्यूरी योद्धाओं को गाजर-मूली की तरह काट डाला और अपने पिता और भाइयों की मौत का बदला लिया। यहीं पर उसकी घोड़ी बिंदुली भी शत्रुओं का शिकार हो गई। अंतत: शत्रु का नामोनिशान ही मिट गया गढ़वाल से। जो शेष रह गए वे दासत्व स्वीकार कर यहीं के नगरिक बन गए। इसी समय घर लौटते हुए एक दिन तल्ला काडा शिविर के निकट पूर्वी नयार नदी तट पर तीलू जलपान कर रही थी कि तभी शत्रु के एक सैनिक रामू रजवार ने धोखे से तीलू पर तलवार का वार कर दिया। तीलू के बलिदानी रक्त से नदी का पानी भी लाल हो गया। नयार में तीलू की आदमकद मूर्ति आज भी उस वीरागना की याद दिलाती है। उनकी याद में आज भी काडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशान के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है। तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गांव में थड्या गीत गाए जाते हैं। ========== महिला सशक्तीकरण की नायाब नजीर तीलू

    डॉ. जोशी बताते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरागनाओं के पराक्रम के चर्चे पूरे भारतवर्श में फैले हैं वही तीलू रौतेली की शौर्यगाथा महज पहाड़ तक ही सीमित रह गयी हैं। आवश्यकता हैं ऐसे महान यौद्धा के रणकौशल, समर्पण और देशभक्ति को प्रकाश में लाने की जिस से लोग खासकर माहिलाएं उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा पा सके। तीलू रौतेली महज कुमाऊं-गढ़वाल या उत्तराखंड ही नहीं अपितु भारतवर्ष की भी महिला-सशक्तीकरण की एक नायाब नजीर हैं।

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