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    Chamoli News: 500 वर्ष पुरानी परंपरा है रम्माण उत्सव, UNESCO ने विश्‍व धरोहर सूची में भी किया है शामिल

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Sat, 26 Nov 2022 06:11 PM (IST)

    उत्तराखंड अपनी अलग लोक सांस्कृतिक के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। इन्‍हीं में से एक है रम्माण उत्सव। यह उत्‍सव चमोली जनपद में हर साल अप्रैल माह में होता है। स्‍थानीय कलाकार प्राचीन मुखौटा परंपराओं के साथ रामायण को लोक शैली में प्रस्तुति देते हैं।

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    उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड-डुंग्रा गांव में प्रति वर्ष अप्रैल माह में रम्माण उत्सव का आयोजन होता है।

    संवाद सूत्र जोशीमठ (चमोली): उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड-डुंग्रा गांव में प्रति वर्ष अप्रैल माह में रम्माण उत्सव का आयोजन होता है। इस उत्सव को वर्ष 2009 में यूनेस्को की ओर से राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित किया गया है।

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    रम्माण का मुख्य आधार रामायण

    रम्माण का मुख्य आधार रामायण की मूलकथा है। उत्तराखंड की प्राचीन मुखौटा परंपराओं के साथ जुड़कर रामायण ने स्थानीय रूप ग्रहण किया। बाद में रामायण रम्माण बन गई। पूरे पखवाड़े चलने वाले कार्यक्रम के लिए इस नाम का प्रयोग होने लगा। रम्माण में रामायण के चुनिंदा प्रसंगों को लोक शैली में प्रस्तुतिकरण होता है।

    हर साल अप्रैल माह में होता आयोजन

    चमोली जिले के सलडू-डूंग्रा गांव में रम्माण मेले का आयोजन हर वर्ष अप्रैल (बैशाख) माह में एक पखवाड़े तक मुखौटा शैली में होता है। यह धार्मिक विरासत 500 वर्षों से चली आ रही है। इसमें राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के पात्रों द्वारा नृत्य शैली में रामकथा की प्रस्तुति दी जाती है।

    ढोलों की थापों पर किया जाता है मंचन

    इसमें 18 मुखौटे 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, 8 भंकोरे का प्रयोग होता है। इसके अलावा रामजन्म, वनगमन, स्वर्ण मृग वध, सीता हरण और लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया गया।

    लोगों को खूब हंसाते है विशेष चरित्र

    इसमें कुरू जोगी, बण्यां-बण्यांण और माल के विशेष चरित्र होते हैं। यह लोगों को खूब हंसाते हैं। साथ ही वन्‍यजीवों के आक्रमण का मनमोहक चित्रण म्योर-मुरैण नृत्य नाटिका होती है।

    अंत में प्रकट होते हैं भूम्‍याल देवता

    रम्माण के अंत में भूम्याल देवता प्रकट होते हैं। समस्त ग्रामीण भूम्याल देवता को एक परिवार विशेष के घर विदाई देने पहुंचते हैं। उसी परिवार द्वारा साल भर भूम्याल देवता की पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद उस घर के आंगन में प्रसाद बांटा जाता है। इसके साथ ही इस पौराणिक आयोजन का समापन होता है।

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