उत्तराखंड के इस हिल स्टेशन में ल्वेथाप की गुफाएं, मिलती है वानर से नर बनने की अद्भुत कड़ी
Lwethap Caves उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित ल्वेथाप की गुफाएं मानव इतिहास के प्राचीनतम साक्ष्यों को समेटे हुए हैं। इन गुफाओं में पाषाण युग के शैल चित्र उपकरण उत्कीर्णन कला और अन्य अवशेष पाए गए हैं । ल्वेथाप की गुफाएं मानव विकास की यात्रा में वानर से नर बनने की कड़ी को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

जागरण संवाददाता, अल्मोड़ा। Lwethap Caves: हिमालयी राज्य आदिकाल से ही मानव गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा है। मानव इतिहास के प्राचीनतम काल पाषाण युग का अच्छा खासा खजाना यहां मिलता है।
तमाम पुरातात्विक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं। इनमें पाषाणकालीन मानव निर्मित शैल चित्र, उपकरण, उत्कीर्णन कला मसलन ओखलियां सरीखे कपमार्क्स, मृदभांड, शवाधान (समाधियां) वगैरह कई सामग्रियां शामिल हैं।
आदि मानव के जैविक अवशेष भी मिले
यही नहीं शिवालिक श्रेणियों में आदि मानव के जैविक अवशेष भी मिले हैं। इन्हें आज तक की मानवजाति के सबसे पुराने अवशेषों में माना जाता है। जो चतुष्पाद से द्विपाद यानि वानर से नर बनने की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण प्रमाण देते हैं।
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इसे हिमालय में बंदर से नर बनने तक मानव विकासयात्रा की अद्भुत कड़ी कहा जा सकता है। इसीलिए मानव विज्ञानी हों पुरातत्वविद् अथवा इतिहासकारों ने शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र में खोजे गए जैविक अवशेष को रामापिथेकस (राम का बंदर) की संज्ञा दी जिसे मानवजाति का पूर्वज माना जाता है।
महापाषाणकालीन सभ्यता के लिहाज से बेहद समृद्ध
कुमाऊं में अल्मोड़ा जिले की सुआल, कोसी व बिनसर घाटी तथा गढ़वाल में अलकनंदा व पिंडर घाटी महापाषाणकालीन सभ्यता के लिहाज से बेहद समृद्ध रही है। तो आइए, इस बार आपको लिए चलते हैं तल्ला लखनपुर में पश्चिमी पहाड़ी की तरफ। जहां मौजूद है सबसे पुरातन पाषाणयुग की अद्भुत दुनिया के पुरातात्विक निशान। यहीं है ल्वेथाप की गुफाओं का वृहद संसार, जिसमें मानव इतिहास के सबसे प्राचीनतम साक्ष्य मौजूद हैं।
प्राकृतिक आवासनुमा बनावट और मानव सभ्यता का विकास
- डीनापानी से लगे कपड़खान और यहां से दूर चीड़ बहूल जंगल में ल्वेथाप की तीन से चार गुफाएं प्रागैतिहासिक मानव सभ्यता के विकास की गवाही देती हैं।
- शेषनाग के फन जैसी आकृति वाली मुख्य गुफा के शैलचित्र लखुउडियार से कुछ मिलती जुलती हैं।
- मगर पंक्तिबद्ध 35 से 36 लोगों की श्रंखला, इसे सबसे अलग करती हैं।
- कह सकते हैं कि अन्य शैलाश्रयों की तुलना में पाषाणयुगीन आदि मानवों की बड़ी बसासत रही होगी।
- अपने अध्ययन का हवाला दे पुरातत्वविद् चंद्र सिंह चौहान कहते हैं कि ये चित्र किसी उत्सव और खुशी के माहौल को दर्शा रही हैं।
- अन्य पुरातात्विक अवशेषों पर गौर करें तो यहां बसे प्रागैतिहासिक मानव की सोच समझ अपेक्षाकृत अधिक विकसित प्रतीत होती है।
- चट्टान की प्राकृतिक उल्टी छत पर गहरे लाल रंग के शैलचित्रों में लंबी मानव श्रंखला के ठीक नीचे रक्तवर्णी लाल रंग की लंबी पट्टी स्पष्ट नहीं है।
- बहुत संभावना है कि हवा पानी आदि जैव प्रभावों के चलते शैलचित्र का रंग फैल गया होगा।
- ल्वेथाप की इस मुख्य गुफा की एक और खासियत है कि इसमें छतनुमा आकृति के नीचे चट्टान पर प्राकृतिक बरामदा जैसा है। संभवत: प्रागैतिहासिक मानव यहां बैठता व विश्राम करता होगा।
- बीचोंबीच ओखलीनुमा कपमार्क्स पुरातात्विक महत्व बढ़ा देता है।
- निर्जन जंगल में सामने की पहाड़ी पर एक और विशालकाय चट्टान है, जिस पर बने शैलचित्र वक्त के थपेड़ों के साथ धूमिल से हो गए हैं।
पानी और शिकार की रही उपलब्धता
कुमाऊं की समृद्ध राक पेंटिंग के इतर ल्वेथाप के शैलचित्रों में कुछ आदिम शिकार करते जैसे दर्शाए गए हैं। बिनसर घाटी की इस ढलान वाली पहाड़ी का भूगोल बताता है कि यहां पानी की प्रचुरता और वन्यजीवों की अच्छी रियासत रही होगी।
पेयजल व शिकार आसान होने के कारण ही प्रागैतिहासिक मानव ने यहां अपना ठिकाना बनाया होगा। ल्वेथाप से पहले धौलछीना व कपड़खान की पहाड़ी के मध्य भूभाग पर हथवाल घोड़ा में भी इसी तरह के शैलचित्र मिलत हैं।
शिलाओं पर कपमार्क्स
शैलचित्रों के साथ ल्वेथाप की गुफा के आसपास की पहाड़ियों पर प्रागैतिहासिक काल के छोटे बड़े कपमार्क्स आज भी पाषाणयुगीन सभ्यता व संस्कृति के प्रमाण देते हैं। मुख्य गुफा के सामने वाली पहाड़ी पर चट्टानों की भरमार है। एक भूभाग पर अलग अलग छह से सात जबकि दूसरे छोर पर दो से तीन कपमार्क्स हैं।
इनमें वर्षा के दौरान बरसाती पानी के साथ बहकर आई मिट्टी भरने तो कुछ पीरूल से ढक गई हैं। प्रागैतिहासिक मानव का इन कपमार्क्स का उपयोग जड़ी बूटी या अनाज कूटने, पुरखों का दाह संस्कार के बाद अस्थि अवशेष रखने और तंत्र विद्या का भी जिक्र मिलता है। हालांकि पाषाणकालीन इन कपमार्क्स के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए शोध अध्ययन बरकरार हैं।
सात से आठ शवाधान
द्वाराहाट की जालली घाटी स्थित जोयूं की भांति ल्वेथाप की गुफाओं के इर्दगिर्द सात से आठ शवाधान (समाधियां) मौजूद हैं। इन समाधियों के निर्माण में अपेक्षाकृत बड़े पत्थरों का इस्तेमाल हुआ है। पुरातत्वविद् चंद्र सिंह चौहान के अनुसार ये शवाधान पाषाणयुगीन मानव की विकसित सोच का संकेत देते हैं। हालांकि ये कितने पुराने हैं, स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।
इसलिए कहलाया ल्वेथाप
ल्वे आंचलिक बोली में लहू (खून) का अपभ्रंश है। थाप यानि थापना अथवा चित्रण करना। जैसे दिवाली में गेरू रंग पर चावल के आटे से मां लक्ष्मी के पांव थापे जाते हैं। या पांव के चित्र बनाए जाते हैं। ठीक उसी तरह खून जैसे गहरे लाल रंग से शिलाओं पर चित्रण किए जाने के कारण आधुनिक मानव ने अपने पूर्वजों से जुड़ी पुरातात्विक गुफा को नाम दिया ल्वेथाप।
प्राचीन पैदल पथ
आध्यात्मिक कसारदेवी पहुंचने से काफी पहले ही बिनसर रोड पर कपड़खान कस्बे से सल्ला गांव के लिए पैदल रास्ता जाता है। जो कुछ आगे बाराकोट, नैनी होकर लखनपुर पट्टी के ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व वाले पेटशाल क्षेत्र में निकलता है।
स्थानीय इंदर आर्या बुजुर्गों से सुने किस्सों का हवाला दे बताते हैं कि कबड़खान से पेटशाल को जोड़ने वाला यह पथ बेहद प्राचीन है। कत्यूरकाल में इस मार्ग का इस्तेमाल धार्मिक व व्यापारिक यात्रा के लिए किया जाता था।
ऐसे पहुंचें
- अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 18 किमी पर कपड़खान।
- यहां से सल्ला गांव की तरफ दो किमी कच्ची रोड पार कर करीब दो किमी पैदल सफर तय कर पहुंचा जा सकता है ल्वेथाप की गुफा तक।
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