Dussehra 2025: अल्मोड़ा ने 165 साल से संजोई रावण कुल के पुतले बनाने की परंपरा, 1860 से हुई थी शुरुआत
अल्मोड़ा में 1860 से रावण कुल के पुतले बनाने की अनूठी परंपरा चली आ रही है। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ी है जिसमें दशहरा महोत्सव के दौरान हजारों लोग साक्षी बनते हैं। 1975 तक केवल रावण का पुतला जलाया जाता था लेकिन बाद में मेघनाद और अन्य पुतले भी शामिल किए गए। इस बार 17 पुतले बनाए गए हैं।

जागरण संवाददाता, अल्मोड़ा। 165 साल का सफर कम नहीं होता। डेढ़ सदी बीत चुकी है। 1860 में एक परंपरा ने अल्मोड़ा में जन्म लिया था। वही अल्मोड़ा जो कुमाऊं के इतिहास का केंद्र है। वही अल्मोड़ा, जिसने चंद, कत्यूरों की राजशाही जीने के बाद एक स्वर्णिम अतीत अपने मस्तक पर दर्ज कर लिया।
1860 की उस परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी इस तरह सहेजा गया कि हर साल दशहरा उत्सव उत्तराखंड
के इस अंचल में आज भी सबसे खास उत्सव होता है और परंपरा है दशहरा पर दशानन के कुल के पुतले फूंकने की। 1975 तक यह शहर केवल रावण के पुतले का दहन करता था। 1976 में मेघनाद का पुतला भी रावण के साथ शामिल किया गया और उसके अगले वर्ष से रावण परिवार के पुतलों की संख्या बढ़ती गई।
न्यूनतम 15 और अधिकतम30 पुतले बनाने की परंपरा के बीच इस बार 17 पुतलों का निर्माण किया गया है। इन पुतलों को पहले पूरे शहर में घुमाया जाता है। पर्यटकों समेत हजारों लोग इसके साक्षी बनते हैं और उसके बाद असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक के रूप में श्रीराम की जयकार के साथ इन पुतलों को एक ही जगह पर आग लगाई जाती है।
1976 से बढ़ी पुतलों की संख्या
रावण कुल का पुतला दहन करने की शुरुआत 1860 में बद्रेश्वर रामलीला से हुई। 1976 में अल्मोड़ा दशहरा महोत्सव समिति बनी। उसके बाद पुतलों की संख्या बढ़ी। आज रावण, अहिरावण, ताड़िका, कुंभकर्ण, मेघनाथ, देवांतक, प्रहस्त, अक्षय कुमार, सुबाहु आदि के पुतले बनाए जाते हैं। अधिकतम लंबाई 14 फीट होती है।
सामाजिक सौहार्द
इस परंपरा में शुरुआत से ही मुस्लिम समाज की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही। शुरुआत में अख्तर अली ने पुतलों का जिम्मा संभाला। इनायत हुसैन और केसर हुसैन को आज भी शहर याद करता है। पुतलों के श्रृंगार, वेशभूषा निर्माण में भी मुस्लिमों का योगदान रहा है।
इस तरह निर्माण
पुतलों का निर्माण पहले बांस के ढांचे पर धान की पराली और मास की दाल, मेथी से किया जाता था। सजावट के लिए कपड़ों, आभूषणों का उपयोग होता। अब बांस की जगह लोहे ने ले ली है और पराली के साथ कागज व जिप्सम प्लास्टर का भी उपयोग होता है। पुतलों में सौंदर्य तत्व शामिल रहता है।
स्टेडियम में होता है दहन
दशहरा महोत्सव समिति के पूर्व अध्यक्ष मनोज वर्मा के अनुसार फिलहाल स्डटेियम में अस्थायीजगह पर ही पुतले फूंके जाते हैं। 1882 में प्रशासन ने 10 नाली जमीन देने का आश्वासन दिया था। अभी यह भूमि नहीं मिली है।
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