UP Tourism ने बनारसी सिल्क साड़ी पर जारी किया पोस्टर, बुनाई संग जरी के डिजाइन से कराया अवगत
बनारसी सिल्क साड़ी की बुनकारी पर रविवार को यूपी टूरिज्म ने पोस्टर जारी कर इसकी विशेषता साझा की है। इससे पहले यूपी टूरिज्म की ओर से बनारस से संबंधित कई विषयों पर समय-समय पर पोस्टर जारी किया गया। पर्यटकों को बनारस के बारे में अवगत कराया।
वाराणसी, जेएनएन। बनारसी सिल्क साड़ी की बुनकारी पर रविवार को यूपी टूरिज्म ने पोस्टर जारी कर इसकी विशेषता साझा की है। इससे पहले यूपी टूरिज्म की ओर से बनारस से संबंधित कई विषयों पर समय-समय पर पोस्टर जारी किया गया। बनारसी पान, रामनगर का किला, गंगा आरती, राजा मानसिंह वेधशाला, गंगा के घाट, दुर्गाकुंड स्थित दुर्गामंदिर, वाराणसी में आरोग्य जैसे विभिन्न विषयों पर पोस्टर जारी कर पर्यटकों को बनारस के बारे में अवगत कराया।
UP Tourism
@uptourismgov
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Amongst the most popular feminine attires in India, the silk saree of #Varanasi stands out as exceptional. It is mostly hand-woven with golden and silver designs. The beautifully carved foliage adorn it perfectly. #UmmazingUP#UPNahiDekhaTohIndiaNahiDekha
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है जिसे विवाह आदि शुभ अवसरों पर हिन्दू महिलाएं धारण करती हैं। उत्तर प्रदेश के चंदौली, बनारस, जौनपुर], आजमगढ़, मीरजापुर और संत रविदासनगर जिले में बनारसी साड़ियां बनाई जाती हैं। इसका कच्चा माल बनारस से आता है। पहले बनारस की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था पर अब यह चिंताजनक स्थिति में है।
रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग जरी के डिजाइन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी कहते हैं। ये पारंपरिक काम सदियों से चला आ रहा है और विश्वप्रसिद्ध है। कभी इसमें शुद्ध सोने की ज़री का प्रयोग होता था, किंतु बढ़ती कीमत को देखते हुए नकली चमकदार ज़री का काम भी जोरों पर चालू है। इनमें अनेक प्रकार के नमूने बनाये जाते हैं। इन्हें 'मोटिफ' कहते हैं। बहुत तरह के मोटिफों का प्रचलन चल पड़ा है, परन्तु कुछ प्रमुख परम्परागत मोटिफ जो आज भी अपनी बनारसी पहचान बनाए हुए हैं, जैसे बूटी, बूटा, कोनिया, बेल, जाल और जंगला, झालर आदि।
रेशम और जरी के धागों का प्रयोग
बनारसी साड़ी का मुख्य केंद्र बनारस है। बनारसी साड़ी मुबारकपुर, मऊ, खैराबाद में भी बनाई जाती हैं। यह माना जा सकता है कि यह वस्त्र कला भारत में मुगल बाद्शाहों के आगमन के साथ ही आई। पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफा, दुपट्टे, बैड-शीट, मसन्द आदि के बनाने के लिए इस कला का प्रयोग किया जाता था। चूंकि भारत में साड़ियों का प्रचलन अधिक था इरान, इराक, बुखारा शरीफ आदि से आए हथकरघा के कारीगरों द्वारा विभिन्न प्रकार के डिजाइनों को साड़ियों में डाला जाता था जैसे बेल, बूटी, आंचल एवं कोनिया आदि। उस समय में रेशम एवं जरी के धागों का प्रयोग किया जाता था। ताने में कतान और बाने में पाट बाना प्रयोग किए जाते थे जिस के परिणाम स्वरूप वस्त्र अति मुलायम व गफदार बनते थे। पूर्व में नक्शा, जाला से साड़ियां बनाई जाती थीं। उसके बाद डाबी तथा जेकार्ड का प्रयोग होने लगा जो कि परम्परा से हटकर माना जा सकता है और अब यह पावर-लूम के रूप में विकसित हुई मानी जा सकती है। बनारसी साड़ी बनाने वाले ज्यादातर कारीगर मुसलमान - अंसारी होते हैं। कवि कबीर भी बुनकर थे। इस साड़ी के खरीदार गुजराती, बंगाली, मारवाड़ी, राजपूत और जिम्मेदार घरानों के लोग होते हैं। प्राचीन समय से ही बनारसी साड़ियों का प्रयोग विशेषतौर से विवाह समारोहों में दुल्हन व नवविवाहिताओं द्वारा प्रयोग किया जाता था और आज तक यह परम्परा चलती आ रही है।
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