ई हौ रजा बनारस : आवा छाना रजा! ला बैकुंठे क मजा
वाराणसी : 'आवा छाना रजा! बाबा के नगरी में बइठल-बइठल ला बैकुंठे क मजा।
कुमार अजय, वाराणसी : 'आवा छाना रजा! बाबा के नगरी में बइठल-बइठल ला बैकुंठे क मजा। आज अमरूद अऊर जामुन क बहार हौ। कउने में छनिहें विजया रानी? माल दुनो टनकदार हौ।' मित्रवर कन्हैया चौरसिया को अशोक भइया को यह नेह भरा न्योता-देवताओं के प्रिय पेय सोमरस की तरावट पर भी भारी असली बनारसी ठंढई के रसपान के लिए है, जिसके बारे में बनारस वालों का अपना दावा है कि 'हचक के पीय चाहे गचक के पीय शिवांबु क एक्को बूंद उदर में नाहीं जाला, हलक से नीचे गयल त सीधे दिल में उतर जाला।'
हमारी मौजूदगी है इस 'बनारसिया' दावे को पुख्तगी देने वाले ठंढई विशेषज्ञ पं. चंद्र मोहन पाठक की नीचीबाग (सुड़िया) वाली दुकान पर जहां ठंढई की हर घूंट के साथ ऐसी दृश्यावलियां बन बिगड़ रहीं हैं। काशी की इस धरोहर 'आइटम' के यश की नई-नई गाथाएं गढ़ रहीं हैं। बताते हैं पंडित जी कि पूरे सवा सौ साल से हमारी चार पीढि़यां बनारस के इस नायाब स्वाद की थाती अगोर रहीं हैं। पुराना सब सहेजते हुए नूतन प्रयोग भी जोड़ रहीं हैं। स्वयं पाठक जी ही बीते साठ वर्षो से अनोखे स्वाद का जादू जगा रहे हैं। वे बताते हैं कि ठंढई देने और पेश करने में अंतर है। ठीक ऐसे ही बनाने और रचने में भी फर्क है। हम ठंढई के खानदानी रचवइया हैं। आमतौर पर ठंढई को दूध में डालकर फेंटने वाला आइटम मान लिया गया है। हम मलाई और क्रीम की ठंढई को छोड़ 'बेस' के लिए सूखे मेवे का पेस्ट आजमाते हैं। ठंढई में दर्जनों मसालों के साथ फल-फूलों के अर्क का तड़का लगाते हैं। यह अर्क भी हम मौसम के मुताबिक खुद ही तैयार करते हैं। बेला, गुलाब, खस, रजनीगंधा, जैसे फूलों की सुगंध को पेय में खींच कर उतारना बनारस की पुरानी कला है। हमने इस नायाब विधा को जतन से सहेज रखा है। इसी तरह फलों में आम, अमरूद, जामुन, फालसा, के अलावा अड़भंग प्रयोगों में केसर, पान कत्था, चूना के अतिरिक्त पीली मिट्टी की सोंधी स्वाद को ठंढई में उतारने की कारीगरी का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है। खास स्वादों की खास समय सारिणी
चंद्र मोहन जी बताते हैं कि नियमित मौसमी प्रयोगों के अलावा कुछ अलबेले स्वाद ऐसे हैं जिनके लिए वर्ष के कुछ विशेष तिथियां नियत हैं। मसलन पान-कत्था-चूना के अलबेले स्वाद वाली ठंढई सिर्फ अप्रैल और आगे चलकर सावन के दूसरे सोमवार को ही लबों से लग पाएगी। उस मौसम के बादशाह मघई पान की मादक सुगंध के साथ। पीली मिट्टी के सोंधे स्वाद वाली ठंढई से भी आप वर्ष में सिर्फ एक दिन पहली जून को ही हेलो! कह सकते हैं। केसर की गर्म तासीर वाली केसरिया ठंढई से आपके लबों की मुलाकात के लिए 24-25 और 31 दिसंबर के साथ पहली जनवरी की तिथि मुकर्रर है। एहतियात इसलिए कि यह आइटम घनघोर शीतलहरी में भी पसीने छुड़ा देने की कुवत रखता है। घोटाई की लीक न तोड़ी
अभी तक 'सिल' ना छोड़ी
ठंढई के स्वाद संवर्धन में चाहे जितने प्रयोग हो 'माल' की 'घोटाई' में यह खानदानी ठंढई घर 'लीक' तोड़ने को राजी नहीं। बूटी हो या फिर मेवे मसालों की घोटाई। इसके लिए आधा दर्जन से अधिक सिल-बट्टे दिन-रात खड़कते रहते हैं। पंडितजी के मुताबिक ठंढई के 'बैकुंठी अनुभूति' का राज ही दरअसल इसी घोटाई की महारत में छिपा हुआ है।
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