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    Pt. Gopinath Kaviraj Birth Anniversary : भारतीय तंत्रशास्त्र के जन्मदाता थे महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ

    By Saurabh ChakravartyEdited By:
    Updated: Mon, 07 Sep 2020 06:55 PM (IST)

    संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज संस्कृत वांगमय के प्रकांड पंडित भारतीय दार्शनिक तंत्रागम के तलस्पर्शी ज्ञाता थे।

    Pt. Gopinath Kaviraj Birth Anniversary : भारतीय तंत्रशास्त्र के जन्मदाता थे महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ

    वाराणसी, जेएनएन। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज संस्कृत वांगमय के प्रकांड पंडित, भारतीय दार्शनिक तंत्रागम के तलस्पर्शी ज्ञाता थे। भारतीय तंत्रशास्त्र पं. गोपीनाथ कविराज (जन्म : 7 सितंबर 1887  ढाका (बांग्लादेश), निधन :  12 जून 1976 वाराणसी में) की ही देन है। विश्वविद्यालय में तंत्रागम विभाग की स्थापना कर उन्होंने तंत्रागम में रहस्यों को उजागर किया। साथ ही पूरी दुनिया में तंत्रशास्त्र को पहचान दिलाई। महान दार्शनिक केवल तंत्रशास्त्र ही नहीं, बल्कि वेद-वेदांग, न्याय, सांख्य-योग, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, दर्शन सहित तमाम शास्त्रों के भी ज्ञाता थे। उन्हें चलता-फिरता विश्वकोश माना जाता था।

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    भारतीय शास्त्र ही नहीं सूफीवाद व ईसाई रहस्यवाद का भी गहन ज्ञान था। शास्त्र उनके जुबान पर रहता था। यहीं कारण है कि देश से विदेशों से भी तमाम विद्वान उनसे शिक्षा ग्रहण करने विश्वविद्यालय आते थे। खास बात यह है भारतीय शास्त्र के अलावा कुरान, बाइबिल पर भी उनकी पकड़ समान रूप से थी। तमाम विदेशी मुस्लिम, ईसाई भी उनसे समझने विश्वविद्यालय आते रहते थे। कहा जाता है कि सागर की थाह लगाई जा सकती है लेकिन उनके ज्ञान का सागर थाह नहीं लगाया जा सकता है। वह भारतीय दर्शन की एक शाखा पूरी संस्था थे।

    पं. गोपीनाथ कविराज का जन्म सात सितंबर 1887 को ढाका (बांग्लादेश) में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा जयपुर में हुई। काशी में क्वींस कालेज में भी उन्होंने पढ़ाई की थी। वर्ष 1913 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए में सर्वाधिक अंक अर्जित किया। वर्ष 1914 में विश्वविद्यालय स्थित सरस्वती भवन पुस्तकालय में बतौर लाइब्रेरियन उनकी नियुक्ति 125 रुपये प्रतिमाह वेतन पर हुई। उस समय विश्वविद्यालय को राजकीय संस्कृत कालेज के रूप में जाना जाता था। इस प्रकार उन्होंने अपने कॅरियर की शुरूआत काशी से की। करीब छह साल (1914-1920) वह लाइब्रेरियन रहे।

    प्राचार्य डा. ए. वेनिस उन्हें काफी सम्मान देते थे। डा. वेनिस के बाद वह वर्ष 1923 में संस्कृत कालेज के प्राचार्य बने। 14 वर्षों तक संस्था के प्राचार्य के रूप में सेवा करने के बाद उन्होंने वर्ष 1937 स्वेच्छा से सेवानिवृत्त ले ली। ग्रंथों के रूप में अमिट छाप विश्वविद्यालय के सरस्वती भवन में सहेज कर रखी हुई है। प्रतिभाशाली शिक्षाविद, सत्य का समर्पित साधक, आध्यात्मिक मार्गदर्शक का निधन वाराणसी में 12 जून 1976 को हुआ। तंत्र शास्त्र के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. शीतला प्रसाद उपाध्याय ने बताया कि उनके गुरु विशुद्धानंद ने इस आध्यात्मिक चिंतनधारा का काशी में ही प्रतिपादन किया था, जिसे पं. गोपीनाथ ने बाद में विस्तार दिया। 21 जनवरी 1918 में योगिराज विशुद्धानंद परमहंस देव से मलदहिया स्थित विशुद्धानंद कानन में दीक्षा ली थी। उन्होंने योग क्रिया पर आधारित दर्जन भर से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें भारतीय संस्कृति और साधना, साधु दर्शन और सतप्रसंग प्रमुख हैं।

    महत्वपूर्ण बिंदु

    1893-1897 कांठालिया, मैननसिंह में प्रारंभिक शिक्षा

    1905 जुबली स्कूल, ढाका से प्रथम श्रेणी में एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण

    1906-10 उच्च शिक्षा के लिए जयपुर, राजस्थान जाना।

    जयपुर से प्रथम श्रेणी में एफए और बीए परीक्षा उत्तीर्ण

    1913 प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी एमए की परीक्षा उत्तीर्ण।

    नव-स्थापित सरस्वती भवन के पुस्तकालय अध्यक्ष नियुक्त

    1917-18 में परमंह विशुद्धानंद से मुलाकात। उनसे दीक्षा की हासिल।

    1947 में प्रयाग विश्वविद्यालय से डीलिट की उपाधि

    1956 में बीएचयू सेे डीलिट की उपधि

    1960 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा ऑनर की उपाधि

    1964 में पद्म विभूषण

    1965 में कोलकत्ता विवि से डीलिट की उपाधि