वर्ष 1951 में पंचवर्षीय योजना आरंभ की गई थी, जो अपने 12 पड़ाव पार करते हुए 2017 में समाप्त हो गई
Panchvarshiya yojana साल 1951 में भारत में पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की गई थी जो अपने 12 पड़ाव पार करते हुए 2017 में समाप्त हो गई। इसकी शुरुआत से इसके समाप्त होने तक योजना ने अलग अलग पड़ावों पर विकास की अमिट छाप छोड़ी है।

स्वाधीनता के बाद भारत को आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर करने के उद्देश्य से वर्ष 1951 में पंचवर्षीय योजना आरंभ की गई थी, जो अपने 12 पड़ाव पार करते हुए 2017 में समाप्त हो गई। भारत के स्वावलंबन और विकास यात्रा में इसकी भूमिका का विश्लेषण कर रहे हैं हर्ष वर्धन त्रिपाठी...
भारत में संघीय ढांचे को लेकर आजकल खूब चर्चा होती है। कई बार यह भी कहा जाता है कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकारों में कटौती की कोशिश कर रही है जबकि पहले की सरकारों ने राज्य सरकारों को अधिक अधिकार प्रदान कर रखे थे। यह भी सामान्य धारणा है कि वर्तमान सरकार ने राज्यों के अधिकार कम करने के लिए संस्थाओं के बुनियादी ढांचे में ही बड़ा परिवर्तन कर दिया है। ऐसी संस्थाओं में प्रमुखता से योजना आयोग का नाम लिया जाता है। योजना आयोग की पहचान पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करने वाली महत्वपूर्ण संस्था के तौर पर थी, ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस संस्था को खत्म करके नीति आयोग बनाने की घोषणा की तो तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था, लेकिन इसे पूरी तरह समझना भी अहम है। नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि अब यह संस्था अपना जीवन जी चुकी है।
उम्मीद से ऊंची पहली छलांग : अक्सर हम दो बातें अवश्य सुनते हैं। पहली, नेहरू माडल पर देश स्वतंत्रता के पश्चात कैसे आगे बढ़ा? दूसरी, आइआइटी, आइआइएम जैसे संस्थान, बड़े बांध आदि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सोच का परिणाम हैं। पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आयोग के जरिए लागू करना इसकी बुनियाद थी, जिसे जवाहर लाल नेहरू ने रखा। काफी हद तक यह दोनों ही बातें सही हैं, लेकिन मूल रूप से एक तथ्य जानना आवश्यक है और वह तथ्य यह है कि पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास का माडल सबसे पहले सोवियत संघ में 1928 में जोसेफ स्टालिन ने लागू किया था और भारत में 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना जवाहर लाल नेहरू के जरिए लागू हुई।
चीन सहित दुनिया के अधिकतर कम्युनिस्ट देशों में पंचवर्षीय योजना के जरिए ही तरक्की की बुनियाद मजबूत की गई। समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में या फिर उस समय की आवश्यकता के अनुसार, प्रथम प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू को पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए ही देश का विकास करना सही लगा। 1951-56 की पहली पंचवर्षीय योजना में देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती पर ध्यान देते हुए प्राथमिक क्षेत्रों को मजबूत करने पर बल दिया गया। जवाहर लाल नेहरू इसके अध्यक्ष और गुलजारी लाल नंदा उपाध्यक्ष बने। इस दौरान भारत में विकास की रफ्तार का लक्ष्य 2.1 प्रतिशत रखा गया और योजना का अच्छा परिणाम देखने को मिला। भारत ने प्रतिवर्ष 3.6 प्रतिशत की विकास की रफ्तार का लक्ष्य हासिल किया।
पहली पंचवर्षीय योजना में खेती के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। कुल बजट में 27.2 प्रतिशत सिंचाई व ऊर्जा तथा 17.4 प्रतिशत का प्रावधान खेती व सामुदायिक विकास पर किया गया। इस योजना में ही भाखड़ा, हीराकुंड, दामोदर घाटी बांध परियोजनाओं को आकार दिया गया। इस पंचवर्षीय योजना के समाप्त होने तक देश में पांच आइआइटी के साथ ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भी स्थापना हुई। हालांकि, देश में पहली आइआइटी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बी.सी. राय ने स्थापित की थी, जिसे आइआइटी खड़गपुर के नाम से जानते हैं। सोवियत संघ की मदद से आइआइटी पवई, अमेरिका की मदद से आइआइटी कानपुर और जर्मनी की मदद से आइआइटी मद्रास की स्थापना हुई।
एकाएक डगमगा गए कदम : दूसरी पंचवर्षीय योजना में तेज औद्योगिक विकास के साथ सरकारी उद्यमों को विकसित करने पर जोर रहा। इसको महालनोबिस माडल के तौर पर याद किया जाता है। भारतीय सांख्यिकीविद् प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने इसे तैयार किया था। इसी पंचवर्षीय योजना के दौरान सोवियत संघ के सहयोग से भिलाई, ब्रिटेन के सहयोग से दुर्गापुर और पश्चिम जर्मनी के सहयोग से राउरकेला की जलविद्युत ऊर्जा परियोजना शुरू की गई। टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च और भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन भी इसी दौरान हुआ, लेकिन जवाहर लाल नेहरू की नीतियों पर टिप्पणी करते हुए अर्थशास्त्री बेल्लीकोट रघुनाथ शेनाय ने कहा कि अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण लोकतंत्र को कमतर कर रहा है। 1957 में जब भारत को भुगतान संकट झेलना पड़ा तो शेनाय की चेतावनी सच साबित होती दिखी। दूसरी पंचवर्षीय योजना में तय 4.5 प्रतिशत का लक्ष्य देश प्राप्त नहीं कर सका और तीसरी पंचवर्षीय योजना पर चीन और पाकिस्तान के युद्ध का साया पड़ गया। उस समय यह भी स्पष्ट हुआ कि भारत आर्थिक तौर पर मजबूत स्थिति में नहीं है। 1961-66 के दौरान 5.6 प्रतिशत वार्षिक विकास का लक्ष्य तय किया गया, लेकिन वास्तविक विकास 2.4 प्रतिशत का ही हुआ। तीसरी पंचवर्षीय योजना की जबरदस्त नाकामी ने सरकार का आत्मविश्वास हिला दिया। उसके बाद चार वर्षों तक हर साल की योजना बनाकर लागू की गई, लेकिन फिर 1969 में चौथी पंचवर्षीय योजना लागू कर दी गई। इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा 14 बड़े निजी बैंकों को सरकारी कर देना इस योजना की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया जाता है। हरित क्रांति की शुरुआत और पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश बनना भी इसी पंचवर्षीय योजना के दौरान हुआ, लेकिन आर्थिक तौर पर देश के लिए जरूरी विकास का लक्ष्य इस योजना में भी प्राप्त नहीं किया जा सका। प्रतिवर्ष 5.6 का लक्ष्य करीब आधे पर जाकर रुक गया।
आर्थिक नीतियों पर उठे सवाल : इंदिरा सरकार की नीतियों के विरोध में देश में आंदोलन जोर पकड़ रहा था। गरीबी बड़ा मुद्दा बन गया था। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ अभियान चलाया, मगर इसका खास प्रभाव नहीं हुआ और 1977 में आपातकाल के बाद आई जनता सरकार ने इंदिरा गांधी की योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस पूरी पंचवर्षीय योजना के दौरान भी भारत में विकास की रफ्तार पांच प्रतिशत से कम ही रही और इसे हिंदू ग्रोथ रेट कहकर अर्थशास्त्री भारतीय विकास की गति का मजाक भी बनाने लगे।
पंचवर्षीय योजना के आधार पर ही राज्यों को भी योजना के साथ बजट का आवंटन होता था और नेहरूवादी समाजवादी नीतियों की वजह से मुक्त बाजार को खराब निगाह से देखा जाता था। इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों के सरकारीकरण और गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रमों ने देश के विकास में कितना योगदान किया, इस पर हमेशा से मतभेद रहा है। नेहरूवादी समाजवादी आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस के भीतर भी स्वर तेज होने लगे और अर्थशास्त्री देश की आर्थिक तरक्की के लिए इससे छुटकारा पाने की सलाह देने लगे।
पकड़ ली विकास की रफ्तार : आर्थिक सुधारों के रास्ते पर जाने का परिणाम देश ने छठवीं पंचवर्षीय योजना लागू होने के दौरान देखा और भारतीय अर्थव्यवस्था लक्ष्य से बेहतर करने में सफल रही। उस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने भारत की सत्ता संभाली। आधुनिक तकनीक के साथ औद्योगिक विकास की नीति का अच्छा परिणाम देखने को मिला और इस दौरान भारत की विकास दर छह प्रतिशत के पार गई।
फिर पटरी से उतरी गाड़ी : राजीव गांधी के ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर वी.पी. सिंह 1989 में सत्ता में आ गए, लेकिन राजनीतिक के साथ ही आर्थिक अस्थिरता भी बढ़ती गई। इस वजह से दो वर्ष तक पंचवर्षीय योजना का खाका ही तैयार नहीं किया जा सका। समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय में देश का स्वर्ण मुद्रा भंडार गिरवी रखने की नौबत आ गई थी। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर से भी कम रह गया था।
मुक्त बाजार की परिकल्पना : भारतीय आर्थिक सुधारों के शीर्ष पुरुष के तौर पर इतिहास में दर्ज प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत में आर्थिक सुधारों की बड़ी बुनियाद रखी गई। आठवीं पंचवर्षीय योजना के जरिए भारत ने मुक्त बाजार की परिकल्पना को आगे बढ़ाया। उस समय वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह को राव ने पूरी स्वतंत्रता दी। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की बुनियाद पर भारत के आर्थिक सुधारों ने दुनिया को आकर्षित करना शुरू किया। भारत 1995 में विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना। तेजी औद्योगिकीकरण के साथ भारत ने 1992-97 के दौरान प्रतिवर्ष 6.8 प्रतिशत की विकास की रफ्तार हासिल कर ली थी।
अटल संकल्प का स्वर्णिम दौर : अब भारत अपनी शक्ति को पहचान रहा था। पी.वी. नरसिम्हा राव के बाद देश के प्रधानमंत्री के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता संभाली। नौवीं पंचवर्षीय योजना उनके कार्यकाल में लागू होनी थी। राव के कार्यकाल में बड़े आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखी गई थी तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उस पर शानदार भवन तैयार करना शुरू कर दिया था। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के जरिए समग्र भारत उन्नत सड़कों के जरिए जुड़ा। आज के राष्ट्रीय राजमार्ग और द्रुतगति मार्गों की बुनियाद स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ही थी। इसके साथ ही ऊर्जा, कृषि, सामाजिक क्षेत्रों में बड़े सुधारों को तेजी से लागू करने का काम भी उसी दौरान हुआ। टेलीकाम के क्षेत्र में बड़े सुधारों का श्रेय भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को ही जाता है। आठवीं पंचवर्षीय योजना के मुकाबले नौवीं पंचवर्षीय योजना में खर्च में 48 प्रतिशत अधिक प्रावधान किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की नीति के तौर पर यह स्पष्ट हुआ कि देश के विकास के लिए सरकारी के साथ निजी निवेश और समाज के हर क्षेत्रों के लोगों का सहयोग आवश्यक है। सब कुछ सरकार करेगी, इस मानसिकता से देश बाहर आने लगा था। देश ने सेवा क्षेत्र में शानदार प्रगति देखी। सेवा क्षेत्र की तरक्की की रफ्तार 7.8 प्रतिशत तक पहुंच गई और औद्योगिक क्षेत्र में तीन प्रतिशत के तय लक्ष्य से डेढ़ गुना अधिक 4.5 प्रतिशत की औद्योगिक विकास की दर प्राप्त हुई।
समापन और भविष्य की नीति : 10वीं पंचवर्षीय योजना का खाका अटल बिहारी वाजपेयी के समय में खींचा गया। 10 प्रतिशत की विकास दर का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है, यह भरोसा भारत को होने लगा था, लेकिन 2004 में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए की सरकार बन गई। 10वीं योजना सुस्त हुई और 2007-12 की 11वीं पंचवर्षीय योजना भी पूरी तरह से पुरानी समाजवादी नीतियों के तले दब सी गई। कर्जमाफी, सब्सिडी के साथ सब कुछ सरकार करेगी, वाली नीति फिर से प्रभावित करने लगी थी। देश के शीर्षस्थ उद्योगपतियों ने सरकार की ढुलमुल नीतियों से परेशान होकर पालिसी पैरालिसिस की स्थिति पर खुलकर कहना शुरू कर दिया था। यूपीए की सरकार 2009 में दोबारा सत्ता में भले ही आ गई, लेकिन 12वीं पंचवर्षीय योजना (जो अंतिम साबित हुई) लागू करते समय ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कह दिया था कि नौ प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार का लक्ष्य तय करना व्यावहारिक नहीं है।
मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट कहा था कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं, नीतियां बनाना है। सो, योजना आयोग की जगह भविष्य के लिए नीतियां तय करने वाले नीति आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूट फार ट्रांसफार्मिंग इंडिया) ने ले ली। इसके जिम्मे अंतरराष्ट्रीय स्थितियों और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर 15 वर्ष की योजना बनाना है। 16 बड़े स्थायी लक्ष्यों और उसके लिए 169 छोटे लक्ष्यों को 2030 तक प्राप्त करने की योजना सफलतापूर्वक लागू करके नीति आयोग को साबित करना है कि योजना आयोग का स्वाभाविक भविष्य नीति आयोग है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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