बीएचयू के सरसुंदरलाल अस्पताल के साइकिल स्टैंड में अस्थि रोग में विशेषज्ञ डाक्टर तुली की ओपीडी
बीएचयू के सरसुंदरलाल अस्पताल परिसर में सांझ का झुटपुटा गहराता जाता।ओपीडी की सेवाओं का समय खत्म गलियारों में शून्य सा सन्नाटा। पिताजी (जज स्व. गोविंद प ...और पढ़ें

वाराणसी, जेएनएन। बीएचयू के सरसुंदरलाल अस्पताल परिसर में सांझ का झुटपुटा गहराता जाता। ओपीडी की सेवाओं का समय खत्म गलियारों में शून्य सा सन्नाटा। पिताजी (जज स्व. गोविंद प्रसाद श्रीवास्तव) के घुटनों की तकलीफ की जांच की खातिर उस समय के ख्यात अस्थि रोग विशेषज्ञ डा. सुरेंद्र मोहन तुली से समय लिया था।
किंतु ट्रैफिक जाम के झाम ने काफी अबेर करा दिया था। तभी निगाहों की जद में आती है। अस्पताल के दक्षिणी द्वार से मेडिकल कालेज की ओर बढ़ती बूटे कद की जानी-चिह्नी से आकृति। हां यह तुली सर ही तो थे। बीएचयू मेडिकल कालेज का ही नवोदित स्नातक होने का संदर्भ देकर ही उनसे वक्त लिया था। किंतु दो पल का वह परिचय उन्हें याद भी होगा ऐसा सोचा न था। झिझक कर प्रणाम और उनका पहला सवाल था अरे तुम पापा साथ आएं हैं क्या। इसके पहले कि मैं विलंभ को लेकर क्षमा याचना करता वे पिताजी का कंधा थपथपाते साइकिल स्टैंड की ओर बढ़ गए। दो मिनट में ही रोगी (मेरे पापा) को एक पत्थर पर बैठाकर और खुद अपने जमीन पर ही उकड़ूं आसन लगाकर तुली सर मरीज के घुटनों का परीक्षण शुरु कर चुके थे।
कोई भी सख्श उस वक्त यह यकीन नहीं कर सकता था कि मरीज के पैरों को गोद में संभाले और साइकिल स्टैंड में ही बैठे ठाले ओपीडी सेवा दे रहे इस सक्श सात संदर पार तक चिकित्सा जगत में प्रो. सुरेंद्र मोहन तुली के नाम से पहचाना जाता है। ऋढ़ की टीबी पर किए गए उनके शोध दुनिया भर के अस्थि रोग विशेषज्ञों के बीच वेदों का मान पाता है। दिलचस्प यह कि पिताजी की जांच पड़ताल के बाद भी तुली सर फुर्सत नहीं पा सके। वे वहीं पर जुट गए हमारी ही तरह विलंबित मरीजों के कई परचे निबटाते रहे। चेहरे पर थकान की एक लकीर तक नहीं हमारे जैसे नवप्रवेशी चिकित्सा स्नातकों को पेशे के प्रति समर्पण का पाठ पढ़ाते रहे। यह तो हुई एक कर्तव्य परायण चिकित्सक की नजीर। आइए एक और वाक्ये से तुली सर के मन में प्रवाहित करूणा की थाह लेते हैं। आज महज व्यवसाय बनकर रह चुके चिकित्सा पेशे के हाथ में सचाई का आईना देते हैं। उन दिनों तक मैं बीएचयू से एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद अस्थि रोग में विशेषज्ञता की खातिर मास्टर आफ सर्जरी की शिक्षा ले रहा था। एक शाम मेरे रूम मेट ने बताया एक असहाय और लावारिस मरीज आपरेशन टेबुल पर है। अत्यधिक रक्त स्त्राव के कारण उसे खून की जरूरत है। एक यूनिट रक्तदान के लिए मुझे तैयार रहना है।
जिज्ञासा ने जोर मारा तो मेरा स्वाभाविक सवाल था कि क्या मैं पहला रक्तदाता हूं पता चला कि जनाब आप तो आखिरी संभावित रक्तदाता है। आप से पहले चार लोग उस अनाथ रोगी के लिए रक्तदान कर चुके हैं। उनमें से पहले रक्तदाता स्वयं तुली सर है। मैं पानी-पानी हो गया। इन अनुभवों से साक्षात्कार के दशकों गुजर जाने के बाद आज समझ में आता है कि एक रोगी और चिकित्सक के बीच कितना गहरा नाता है। डा. तुली के एक स्नेहील स्पर्श मात्र से दर्द से छटपटा रहे किसी मरीज को पलभर में ही कैसे आराम मिल जाता है। इन दिनों तुली सर वार्धक्य के अंतिम चरण में फिलदौर राजधानी दिल्ली में विश्राम के पल गुजार रहे हैं। अलबत्ता उनके सादे और सरल व्यक्तित्व के शुक्ल पक्ष के उजाले हमारे जैसे नजाने कितने डाक्टरों का किरदार संवार रहे हैं।

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