काशी की गलियों में गूंजता है महिषासुर मर्दिनी दुर्गा स्वरूप का महत्व, पग-पग पर बिखरीं कथाएं
वाराणसी में नवरात्र के दौरान मातृशक्ति के रूप में दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। महिषासुर मर्दिनी का स्वरूप राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है जिसमें देवी देवताओं द्वारा दिए गए अस्त्रों से महिषासुर का वध करती हैं। यह स्वरूप सामूहिक शक्ति और एकजुटता का संदेश देता है जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

प्रोफेसर मारुति नंदन तिवारी, वाराणसी। नवरात्र के नौ दिनों में हम शक्ति के ही विभिन्न रूपों का पूजन और दर्शन करते हैं जो मातृशक्ति यानी हमारे अस्तित्व से प्रारंभ होती हुई संपूर्ण जीवन की क्रियाशीलता और कार्य करने की क्षमता और ऊर्जा का मूर्त रूपांतरण है।
मूलत: शिव और शक्ति का एक्य प्रकृति और पुरुष के रूप में ज्ञात है और वही शक्ति पार्वती या उमा के नाम से शिव पत्नी के रूप में दिखाई गई हैं। शक्ति के विभिन्न रूप वास्तव में पार्वती की ही अलग- अलग रूपों में अभिव्यक्ति है और इस प्रकार हमारे जीवन के विभिन्न कार्यों के लिए अनिवार्य ऊर्जा के स्रोत का मूर्त रूपांतरण है।
महिषासुर मर्दिनी दुर्गा स्वरूप में मां पार्वती की यह अभिव्यक्ति राष्ट्रीय एकात्मता को प्रबोधक है। देवी सामान्यतः त्रिशूल से महिष की कटी हुई गर्दन से निकले मानव देहधारी असुर के वक्ष पर निर्णायक प्रहार करती दिखाई गई हैं। यह स्वरूप मार्कंडेय पुराण के दुर्गा सप्तशती के 74वें में एवं 75वें सर्ग में विस्तार से वर्णित है।
पहली-दूसरी शती ई. से निरंतरता में 20वीं शती बल्कि 21वीं शती में दुर्गा महिषमर्दिनी का वही स्वरूप निरंतरता में देखा जा सकता है। आज भी काशी के विभिन्न पंडालों में और काशी के बाहर के भी पंडालों में दुर्गा के महिषमर्दिनी स्वरूप की ऐसी ही मूर्तियां स्थापित होती हैं।
मार्कंडेय पुराण में उल्लेख है कि जब महिषासुर का संहार कोई भी देवता करने में सक्षम नहीं हुए, तब सभी देवताओं ने मिलकर यह निर्णय लिया कि हम एक ऐसे समवेत महाशक्ति स्वरूपा देवी की रचना करें और उन्हें अपने-अपने विशिष्ट आयुध दें जिससे महाशक्ति स्वरूपा देवी महिषासुर का संहार कर सकें और यही हुआ।
विष्णु ने चक्र दिया, शिव ने त्रिशूल दिया और ऐसे ही अन्य देवताओं ने धनुष -बाण, खड्ग दिए और अलग-अलग देवताओं ने अपने शरीर के अलग-अलग अंगों को भी तेज स्वरूप प्रदान किया। इसीलिए मांं दुर्गा महिषमर्दिनी को चार या उससे भी अधिक हाथों वाला और उनमें त्रिशूल, चक्र, धनुष, बाण, घंटा,खड्ग जैसी सामग्री लिए दिखाया जाता है।
इस स्वरूप में देवी का सिंह वाहन बहुत सक्रिय रूप में महिषासुर के संहार कार्य में देवी का सहयोग करते हुए दिखाया जाता है। कुषाण काल यानी पहली शती से मिलने वाले शक्ति के स्वरुप में देवी की अभिव्यक्ति दुर्गा महिषमर्दिनी रूप में ही हुई है।
मारकंडेय पुराण की कथा की विवेचना करें तो एक तथ्य सामने आएगा कि पहली-दूसरी शती ई से प्रारंभ होने वाले विदेशी आक्रमण -आधिपत्य और प्रभाव का प्रतिरोध करने की अलग-अलग भारतीय शक्तियों में क्षमता नहीं थी। इस स्वरूप की परिकल्पना की पृष्ठभूमि में वास्तव में यह संकेत किया गया है कि किसी भी चुनौती या आक्रमण को हम अपने सामूहिक शक्ति के माध्यम से ही निष्प्रभावी कर सकते हैं।
एकजुट होकर ही हम देश या किसी समाज की समस्याओं का या चुनौती का समाधान या प्रतिकार कर सकते हैं। वास्तव में हमें एकजुट होने की प्रेरणा इस स्वरूप के माध्यम से हमारे आचार्यों ने दी है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। हमारा एक होकर, एक स्वर में, एक साथ समस्याओं से जूझना आवश्यक है। इसीलिए दुर्गा महिषमर्दिनी का यही स्वरूप 2000 वर्षों से निरंतर चला आ रहा है।
आठवीं से 14वीं सदी के बीच की 10 से अधिक महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियां मिलती हैं काशी में
काशी में नवदुर्गाओं के लिए नौ प्रतिमाओं की स्थापना अलग-अलग स्थानों पर हुई है और नवरात्रि के नौ दिनों में उनके अलग-अलग दर्शन का विधान है। उनके नाम भले ही अलग-अलग शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, कात्यायनी, स्कंदमाता, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री हों मगर सभी स्वरूप में वास्तव में पार्वती ही हैं।
शास्त्रों में उनके स्वरूप और लक्षण अलग-अलग बताए गए हैं। दुर्गा पूजा के दौरान लगभग पूरे उत्तर भारत में मां का दुर्गा के महिषमर्दिनी रूप की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। इस स्वरूप में काशी में लगभग आठवीं से 14वीं सदी ईसवी के बीच की 10 से अधिक मूर्तियां देखी जा सकती हैं। यह लगभग उसी रूप में निरंतरता में चल रहा है। इस स्वरूप को वर्तमान की विसंगतियों में राष्ट्रीय चेतना के एक प्रतीक के रूप में लेना आवश्यक है।
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