हिंदू सनातन धर्म में चार तरह से शवों के अंत्यकर्म का है विधान, जानिए सनातन धर्म का विधान
हिंदू सनातन धर्म के अनुसार मानव जीवन के 16 संस्कारों में से अंत्यकर्म संस्कार सबसे महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में इसकी चार विधियां बताई गई हैं। अग्नि दाह जल प्लवन भू-समाधि भू-समाधि अग्नि दाह। हर संस्कार की अलग-अलग नियमावली है।

वाराणसी, सौरभ पांडेय। हिंदू सनातन धर्म के अनुसार मानव जीवन के 16 संस्कारों में से अंत्यकर्म संस्कार सबसे महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में इसकी चार विधियां बताई गई हैं। अग्नि दाह, जल प्लवन, भू-समाधि, भू-समाधि अग्नि दाह। हर संस्कार की अलग-अलग नियमावली है। जिसके अनुसार अंत्यकर्म करना चाहिए। यदि कोई शिशु 27 माह से कम का है और वह गंगा तीर्थ क्षेत्र के आसपास का है तो उसे गंगा में जल प्लवन करना चाहिए।
यदि कोई गृहस्थ जीवन में कदम रख लिया है तो उसकी मृत्यु के पश्चात उसके शव का अग्नि दाह करना चाहिए। यदि कोई संन्यासी है तो उसे किसी महानदी में जल समाधि देनी चाहिए या आसपास महानदी नहीं होने पर उसे भू-समाधि दिया जा सकता है। यदि किसी की मृत्यु संक्रामक बीमारी से होती है तो उसे पहले तीन दिन के लिए भू-समाधि देनी चाहिए ततपश्चात उस शव का चौथे दिन अग्नि दाह करना चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय के अनुसार गर्भ में जिस पंच भौतिक पिंड का निर्माण होता है उसमें प्राण वायु रूपी आत्मा प्रविष्ट होने के बाद नौ मास में मातृगर्भ से प्रसव पूर्वक इस धरा धाम पर उस जीव का आगमन होता है। जैसे ही वह आत्मा इस पंच भौतिक पिंड ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का त्याग करती है तो उसके निस्तारण की चार विधियां शास्त्रों में बताई गई हैं। इसमें दाह क्रिया का ही सर्वाधिक महत्व है। शेष विधियां स्थिति के सापेक्ष हैं।
मानव शरीर पंच भौतिक पिंड से निर्मित है। मृत्यु के पश्चात अग्निक्रिया से पुनः इन पंच भूतों में ही समाहित हो जाता है। जिससे प्राकृतिक संतुलन बना रहता है। उसके बाद पुनर्जन्म की अवधारणा पुष्ट होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब जीव स्थूल शरीर से निकलता है तो सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए उसे एक वायवीय शरीर मिलता है। जिससे जीव गति को प्राप्त करता है। सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से निकलते ही वायवीय शरीर ग्रहण करता है। लेकिन स्थूल शरीर में अधिक समय तक निवास करने के कारण स्थूल शरीर के साथ उसका अनुराग हो जाता है। इस कारण वह बार-बार वायुप्रधान शरीर के द्वारा स्थूल शरीर में प्रविष्ट होकर रहने का प्रयास करता है।
जलसमाधि और भू-समाधि की प्रक्रिया
सनातन परंपरा के मुताबिक संन्यासी-महात्माओं के लिए निरग्रि होने के कारण शरीर छूटने पर भू-समाधि और जलसमाधि आदि देने का विधान है। इसके अलावा यदि चाहें तो अग्नि दाह भी कर सकते हैं। वहीं गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में यदि 27 महीने तक के आयु वर्ग के बालक की मृत्यु हो जाए तो उसे गंगा में प्रवाहित कर देना चाहिए। गंगा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में उत्पन्न 27 महीने से कम आयु के बालकों को भूमि समाधि देने का विधान है। यदि इससे अधिक उम्र का बच्चा अगर मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसका अग्नि दाह संस्कार कर उसकी अस्थियों को गंगा में विसर्जित करना चाहिए। गरुड़ पुराण में भी संन्यासीयों के लिए जल समाधि या भू- समाधि की व्यवस्था बताई गई है।
हंसं परमहंसं च कुटीचकबहूदकौ।
एतान् सन्यासिनस्तार्क्ष्य पृथिव्यां स्थापयेन्मृतान्।।
गंगादीनामभावे हि पृथिव्यां स्थापनं स्मृतम्।
यत्र सन्ति महा नाद्यस्तदा तास्वेव निक्षिपेत्।।
अर्थात हंस परमहंस कुटी चक और बहूदक भेद से जो संन्यासी बताए गए हैं। उन सन्यासियों का शरीर छूटने के बाद गंगा नदी में जल समाधि देनी चाहिए। यदि गंगा या कोई महानदी आसपास में न हो तो भू-समाधि देने का विधान है।
भू-समाधि ततपश्चात अग्निदाह
शास्त्रों में वर्णित विधान के अनुसार यदि जीव आत्मा का शरीर किसी संक्रामक बीमारी या कुष्ठ रोग से छूटा हो तब मृत शरीर को पहले तीन दिन तक भू-समाधि देना चाहिए। उसके बाद चौथे दिन अग्नि दाह करना चाहिए। निर्णय सिंधुकार ने भी यही व्यवस्थाएं सनातन धर्म के अंतर्गत मृत शरीर के निस्तारण की बताई है।
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