वाराणसी के ज्ञान प्रवाह में अतीत से संवाद, भारतीय कला और संस्कृति का अद्भुत संगम
वाराणसी के सामनेघाट पर स्थित ज्ञान प्रवाह पद्मश्री विमला पोद्दार के स्वप्न को साकार करता है। यह संस्था भारतीय संस्कृति के प्रचार के लिए 1999 में स्थापित की गई थी। कला मंडप में प्राचीन मूर्तियाँ सिक्के और वस्त्रों का संग्रह है जो भारत की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसकी सराहना की थी।

वाराणसी। सामनेघाट स्थित सांस्कृतिक संस्था ज्ञान प्रवाह स्वर्गीया पद्मश्री विमला पोद्दार के संकल्प का मूर्त रूप है। भारतीय संस्कृति के मानकों के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से एक अगस्त 1999 को स्थापित ज्ञान-प्रवाह में कलामंडप की स्थापना हुई।
इसमें हमारी मूर्त विरासत के प्रदर्शन द्वारा भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक और कला परंपराओं को दर्शाया गया है। यह कलामंडप विरासतों के माध्यम से भारत के अतीत से सीधा साक्षात्कार कराता है। वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कला मंडप में पर्याप्त समय व्यतीत किया था और इसे 'भारतीय संस्कृति का वातायन' बताया था।
कलामंडप की प्रायः सभी वस्तुएं कला संग्राहक और ज्ञान-प्रवाह न्यास के संस्थापक अध्यक्ष पद्मभूषण सुरेश नेवटिया के संग्रह से हैं। यहां की कला वीथिका में मौर्य काल से लेकर 13वीं शती ई. के मध्य के कुछ प्रस्तर शिल्प प्रदर्शित है। इनमें प्रमुख हैं कुबेर, सूर्य, आदित्य वराह, भैरव, चामुंडा, महिषमर्दिनी, दक्षिणामूर्ति शिव और पाल कला की मूर्तियां।
मथुरा, कौशांबी, चंद्रकेतुगढ़ आदि स्थलों से मिले मृण्मूर्तिकला के नमूने मौर्य काल से बीसवीं शताब्दी के बीच के हैं। इनमें मातृदेवी, राजा उदयन द्वारा वासवदत्ता का अपहरण, मयूर व यक्षानुकृति शकट (गाड़ी), रामायण दृश्य मुख्य हैं। कुछ कांस्य मूर्तियां भी हैं। प्राचीनतम आहत मुद्राओं (पूर्व मौर्यकाल) से लेकर देशी रियासतों तक के सिक्के हैं। आहत सिक्कों में जनपदीय सिक्के महत्त्वपूर्ण हैं।
इनमें विभिन्न जनपदों के सिक्के, नगरों के नाम वाले और क्षेत्रीय राजाओं के सिक्के विशेष हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से सिकंदर और मिनांडर के सिक्के, कलात्मक दृष्टि से कुषाण और गुप्त युगों के सिक्के, मुगलकालीन अकबर और जहांगीर के सिक्के महत्त्वपूर्ण हैं। देशी रियासतों में अनेक राजाओं के सिक्के भी वंशावलियों की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
लघुचित्रों में भारतीय चित्रकला की प्रमुख शैलियों एवं उनके उपभेदों में पाल, पश्चिमी भारत, सल्तनत, लोक मुगल मेवाड़, बूंदी, सिरोही, किशनगढ़, जोधपुर, बीकानेर, आमेर, जयपुर, गुलेर, कांगड़ा, मंडी, मालवा, मैसूर और कंपनी शैली के चित्र हैं।
कलामंडप का एक भाग भारतीय वस्त्रों से परिचय कराता है जिनमें कलमकारी, बंगाल की बालूचर साड़ी और कांथा, बनारस एवं गुजरात के ब्रोकेड, महाराष्ट्र का पैठन, कश्मीरी शाल और बंगाल तथा अवध की जामदानी उल्लेखनीय है।
एक स्वतंत्र शोकेस में पूर्वी भारत से प्राप्त 15वीं शती का समिट वस्त्र और 17वीं शती का ईरानी वस्त्र महत्त्वपूर्ण है। सम्राट हर्षवर्धन (606-646 ई.) का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ताम्रपत्र भी संग्रह में है। यह उनके राज्यवर्ष 23 अर्थात् 629 ई. में ग्रामदान के लिए प्रचारित किया गया था। काशी के गहड़वाल शासक राजा गोविंदचंद्र एवं राजा नरवर्मा के ताम्रपत्र भी हैं।
संग्रहालय में ही एक स्वतंत्र काशी वीथिका भी है जिसमें काशी की कला और संस्कृति से संबंधित पुरास्थलों, मंदिरों, इस्लामिक स्थापत्य, दुर्लभ चित्रों के अतिरिक्त काशी के उत्सव, त्योहार एवं मेलों तथा काशी की रामलीलाओं में प्रयुक्त होने वाले मुखौटों, राम-लक्ष्मण की काष्ठ प्रतिमा, धातु एवं मृण्मूर्तियों का संग्रह काशी की विभिन्न परंपराओं का दिग्दर्शन कराता है।
काशी वीथिका में एक दुर्लभ काशी के मानचित्र में काशी के देवालयों, मूर्ति के प्रधान स्थलों और लगभग सभी धर्म एवं संस्कृति के स्थलों को नाम सहित दर्शाया गया है। इस मानचित्र में ही इसकी तिथि सं. 1933 (1876 ई.) और इसका निर्माण कैलाश नाथ सुकुल द्वारा करवाया जाना मुद्रित है। इस मानचित्र के आधार पर 150 वर्ष पूर्व के काशी के महत्त्व और महत्त्वपूर्ण स्थलों पर स्वतंत्र रूप से शोध किया जा सकता है।
संग्रहालय के अतिरिक्त संस्था में महिषमर्दिनी, सूर्य की मूर्तियां और ज्ञान-प्रवाह द्वारा श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर के समीप सरस्वती फाटक में प्रो. विदुला जायसवाल द्वारा कराए उत्खनन में 11वीं शती की छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण उमा-महेश्वर मूर्ति भी है। शिव के बाएं पार्श्व में पार्वती बैठी हैं। दोनों एक दूसरे को स्नेह भाव से निहार रहे हैं। शिव चतुर्भुज और पार्वती द्विभुजा हैं।
दोनों के एक-एक हाथ एक दूसरे के कंधे पर आलिंगन मुद्रा में है। मूर्ति में दोनों ओर दो सेवक आकृतियां, दाहिनी ओर नंदी और बाईं ओर मयूर वाहन सहित कार्तिकेय का अंकन हुआ है। इस मूर्ति का वैशिष्ट्य है रावण की छोटी आकृति का कुछ इस रूप में दिखाया जाना मानो रावणानुग्रह मूर्ति के समान पर्वत को ही उठा लेना चाहता है जिसका यहां सांकेतिक अंकन है।
(रिपोर्ट : प्रो. मारुति नंदन प्रसाद तिवारी/ डा. नीरज कुमार पांडेय)
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