Jangambari Math in Varanasi : पीठ स्वरूप में संरक्षित है तीन हजार वर्ष प्राचीन एक आध्यात्मिक परंपरा
Famous Temple in Varanasi भगवान शिव के रुद्र स्वरूप की आराधना के अपने प्रथम संस्कार के साथ ही राष्ट्र व समाज के प्रति पूर्ण समर्पण व चिंतन वीर शैव संप्रदाय को अन्य पंथों की एकरस धारा से बिल्कुल अलग पहचान देता है।

वाराणसी, कुमार अजय : भगवान शिव के रुद्र स्वरूप की आराधना के अपने प्रथम संस्कार के साथ ही राष्ट्र व समाज के प्रति पूर्ण समर्पण व चिंतन वीर शैव संप्रदाय को अन्य पंथों की एकरस धारा से बिल्कुल अलग पहचान देता है। संप्रदाय के प्रवर्तक कर्नाटक के श्री विश्वाराधय महास्वामी ने 3000 वर्ष पूर्व भगवान शिव की राजधानी काशी में विश्वाराधय पीठ की स्थापना की थी।
इसी क्रम में महास्वामी ने शिव नगरी में एक मठ की भी स्थापना की जो न केवल काशी अपितु उत्तर भारत का पहला मठ संस्थान है। आज यह जंगमवाड़ी मठ के नाम से ख्यात है। धर्म संवर्धन के अलावा दान, ज्ञान व समाज-राष्ट्र की सेवा को भी अपने एक धेय्य के रूप में अंगीकृत करने वाली यह पीठ विस्तार के स्तर पर आज भारत के सभी राज्यों में आध्यात्मिक उत्थान सहित समाज निर्माण के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभा रही है। रूस में भी पीठ के मठों व आश्रमों की स्थापना कर भारतीय धर्म दर्शन को अंतरराष्ट्रीय फलक देने की दिशा में वर्षों से सक्रिय है। यहां उल्लेख जरूरी है कि अभी हाल ही में निवर्तमान पीठाधिपति हुए डा. चंद्रशेखर शिवाचार्य महास्वामी ने मठ के आध्यात्मिक वैभव की श्रीवृद्धि के साथ ही समाज सेवा, विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकल्पों की स्थापना की है। मठ की अंतरराष्ट्रीय छवि की श्रीवृद्धि में भी चंद्रशेखर महास्वामी ने महती भूमिका अदा की है। बीते माह 87वें अधिपति पद पर अभिषिक्त डा. मल्लिकार्जुन शिवाचार्य महास्वामी भी पूर्ववर्ती पीठाधिपति के कार्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं।
मठ प्रांगण की आभा शोभा :
नगर के हृदय क्षेत्र गोदौलिया के समीप जंगमवाड़ी नाम से ही ख्यात मोहल्ले में स्थापित मठ का विशाल सिंहद्वार बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। प्रशस्त यात्री निवास के साथ ही मठ की मुख्य पीठिका पर विश्वाराधय महास्वामी का मंदिर यहां का सबसे महिमामय आस्था केंद्र है। प्रांगण में अन्य देवी देवताओं के देवालय भी नित्य पूजित हैं। लोग बड़ी श्रद्धा के साथ उन दो समाधियों का दर्शन पूजन करते हैं, जो काशी में ही शिव-सायुज्य को प्राप्त हुए पीठ के उन पर्माचार्यों की हैं।
ईष्ट लिंग की आराधन परंपरा :
वीर शैव संप्रदाय के अनुयायी मत के संस्कारों व अनुशासन का तो पालन करते ही हैं, मुख्य लक्षण के रूप में गले में शिवलिंग अवश्य धारण करते हैं। इन्हें ईष्ट लिंग कहा जाता है। ईष्ट लिंग की नियमित आराधन शैव भक्तों के बीच सबसे महिमामय पूजा के रूप में प्रचलित है।
काशी में शिवलिंग स्थापन की परंपरा:
वीर शैव भक्तों के लिए यह रीति सौभाग्य सूचक मानी जाती है, जिसमें वे अपने दिवंगत पुरखों की स्मृति में काशी के इस जंगम तीर्थ में शिवलिंग की स्थापना करते हैं। इन भक्तों द्वारा स्थापित असंख्य शिवलिंगों में से कई लाख तो स्थान संकुचन की वजह से गंगा की धारा में समर्पित किए जा चुके हैं। इसके बाद भी जो शिवलिंग व्यवस्थित रूप से संरक्षित हैं उनकी संख्या भी अनगिन है।
मुगल बादशाहों ने भी रखी मान की आन :
सिंह द्वार के अंदर प्रवेश करते ही मठ के बाईं ओर की दीवार पर एक विशाल पट्टिका लगी नजर आती है। इस पर बादशाह शाहजहां, सम्राट अकबर, बादशाह औरंगजेब तथा दारा शिकोह जैसे मुगल शासकों के दर्जनों ऐसे फरमान चस्पा हैं, जिनमें मुगल बादशाहों ने मठ के प्रभाव को महत्ता देते हुए राज्यकर्मियों को सख्त ताकीद की है कि इस संस्थान की मान-मर्यादा को किसी भी हाल में ठेस न पहुंचने पाए।
मठ की देहरी से बाहर :
संप्रदाय के तत्व दर्शन के अनुसार राष्ट्र व समाज के कल्याण का चिंतन व उसके लिए सतत प्रयासों को मूर्त रूप देने का जतन ही सही मायनों में सच्ची पूजा है। इसे ध्यान में रखते हुए पीठ ने देश में कई सेवा प्रकल्प खड़े किए हैं। इनमें विद्यालयों की स्थापना, मेधावी विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति व शिक्षण संस्थाओं का संचालन पीठ के नियमित प्रकल्प हैं। काशी के बलुआ क्षेत्र में वाल्मीकि सरोवर के तट पर बालिका विद्यालय के संचालन के अलावा मठ की ओर से शोलापुर, लातूर, पुणे, बिसनहल्ली व सदनगर में कई शिक्षा प्रकल्प निरंतर चल रहे हैं। पूर्व में भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में मठ का बहुत बड़ा योगदान रहा है। तत्कालीन पीठाधिपति शिवलिंग शिवाचार्य महास्वामी ने स्वयं महामना मालवीय से मिलकर इतनी उदारता के साथ भूमिदान किया। यह आज भी गजेटियर में अंकित है।
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