काशी को डा. भगवान दास के रूप में मिला था पहला भारत रत्न, आज है जन्मदिन
शिक्षा, आध्यात्म और संस्कृति की पुरातन काल से राजधानी काशी अनेक महान विभूतियों की धरती है, ऐसी ही एक महान विभूति थे काशी के प्रथम भारत रत्न डा. भगवान दास।
वाराणसी, जेएनएन। शिक्षा, आध्यात्म और संस्कृति की राजधानी काशी अनेक विभूतियों की धरती है। ऐसी ही एक महान विभूति थे काशी के प्रथम भारत रत्न डा. भगवान दास। जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तब काशी में 12 जनवरी 1869 को जन्में डा. भगवान दास ने भविष्य के भारत की नींव रखी। उनका मानना था कि शिक्षा ही देश के सर्वांगीण विकास का माध्यम है।
बीएचयू की स्थापना में भूमिका : डा. भगवान दास के बड़े पुत्र पद्म विभूषण श्रीप्रकाश ने अपने पिता पर लिखी पुस्तक में अनेक पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसमें हिंदू कालेज की स्थापना और उसके संचालन को लेकर भी जिक्र किया गया है। बनारस के इतिहास में भारत रत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय एक महत्वपूर्ण आयाम है। बीएचयू की स्थापना की नींव में थियोसाफिकल सोसायटी के तत्वावधान में डा. एनी बेसेंट और डा. भगवान दास द्वारा स्थापित हिंदू कालेज का बड़ा महत्व है। महामना मालवीय को डा. एनी बेसेंट ने इसी हिंदू कालेज को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विलय के लिए दिया था। पुस्तक में श्रीप्रकाश लिखते हैं कि 'पिताजी मार्च 1898 में सरकारी नौकरी छोड़कर स्थायी रूप से काशी आ गए और सेंट्रल हिंदू कालेज का शुभारंभ जुलाई 1898 में काशी नगरी के अंतर्गत सप्तसागर (काशीपुरा) मुहल्ले में हुआ।' वे आगे लिखते हैं 'आरंभ में स्कूल की अंतिम देा तथा कालेज की प्रारंभिक दो अर्थात कुल चार कक्षाओं से इस विद्यालय का कार्य आरंभ हुआ था। ....थोड़े ही दिन बाद श्री काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह की उदारता से कमच्छा मुहल्ला में पर्याप्त भूमि मिली जहां थियोसाफिकल सोसायटी और सेंट्रल हिंदू कालेज दोनों के भवन तैयार हुए। ...पिताजी ने श्रीमती एनी बेसेंट का साथ पूरी तरह इन दोनों कार्यों में दिया। कालेज के वे प्रधानमंत्री आरंभ से ही रहे।' इसी कारण से बीएचयू के विधि संकाय का नाम डा. भगवान दास के नाम समर्पित किया गया है।
अन्य उपलब्धियां - थियोसाफिकल सोसायटी के अलावा वर्ष 1921 में डा. भगवान दास काशी विद्यापीठ के संस्थापक कुलपति भी रहे। इसी वर्ष में हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता कर उन्होंने साहित्य के प्रति अपने अनुराग को भी पुष्ट किया। वर्ष 1955 में उन्हें समाज सुधार, दर्शन और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए देश के सर्वोच्च नागरिकता सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।