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    पुण्यतिथि 6 जुलाई विशेष : स्‍वतंत्रता के प्रेरक रचनाकार प्रताप नारायण मिश्र, साहित्‍य में रचा देश सेवा का संस्‍कार

    By Abhishek SharmaEdited By:
    Updated: Sun, 03 Jul 2022 12:36 PM (IST)

    38 वर्ष के जीवनकाल में मिश्र जी ने हिंदी साहित्य के एक युग को जिया और देश को जो दृष्टि दी वह साहित्य प्रेमियों के साथ स्वतंत्रता सेनारियों के लिए प्रेरणा बन गई। अपनी लेखनी से क्रांतिवीरों में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध चेतना जगाई।

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    स्‍वतंत्रता के प्रेरक रचनाकार प्रताप नारायण मिश्र की स्‍मृतियां।

    मोहनलाल मिश्र 'धीरज' उन्नाव, उ.प्र.। भारतेंदु युग के प्रमुख रचनाकारों में पं. प्रताप नारायण मिश्र (पुण्यतिथि, 6 जुलाई) का हिंदी साहित्य जगत में अविस्मरणीय योगदान है। वह साहित्यकार होने के साथ ही सामाजिक, राजनीतिक संचेतना के प्रखर अग्रदूत थे। अपनी 38 वर्ष की जीवन अवधि में मिश्र जी ने हिंदी साहित्य के एक युग को जिया और देश को जो दृष्टि दी वह साहित्य प्रेमियों के साथ ही स्वतंत्रता सेनारियों के लिए भी प्रेरणा बनी।

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    मिश्र जी ने अपनी लेखनी से क्रांतिवीरों में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध चेतना जगाई।

    स्वतंत्रता का आह्वान करने हुए मिश्र जी लिखते हैं, 'सब ति गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातै खाव।'

    हिंदी साहित्य का इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, 'प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखन कला में भारतेंदु को ही आदर्श मानते थे, पर उनकी शैली में भारतेंदु की शैली से बहुत कुछ भिन्नता भी लक्षित होती है।

    प्रतापनारायण जी में विनोद प्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में व्यंग्यपूर्ण वक्रता की मात्रा प्राय: रहती थी।' मिश्र जी के जीवन समग्र पर दृष्टि डालें तो उनका एक रूप साहित्य को समर्पित था और दूसरा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रेरक का। जिस समय अंगे्रजों के विरुद्ध विचार व्यक्त करने पर प्रतिबंध था उस दौर में पं. प्रताप नारायण मिश्र ने पत्रकारिता और सहित्य के माध्यम से क्रांतिवीरों में जोश का संचार किया। मिश्र जी द्वारा मार्च 1938 में संपादित-प्रकाशित पत्रिका 'ब्राम्हण' में अंग्रेज सरकार की नीतियों के विरुद्ध काफी कुछ प्रकाशित हुआ जिससे लोगों में देशप्रेम की भावना का संचार हुआ।

    स्वतंत्रता संग्राम के लिए एकता की आवश्यकता पर बल देने वाले मिश्र जी 'लोकोक्ति शतक' में लिखते हैं-

    प्रति पर स्वर राखहु मीत, सब दु:ख सहजति जैहैं बीति।

    नहि एकता सरिस बलकोय, एक एक भी ग्यारह होय।।

    विदेशी सरकार के प्रति सजग करते हुए वह लिखते हैं-

    अपना काम अपने ही हाथामल होई,

    पर देशिन पर धमिनि ते आशा नहिं कोई।

    धन, धरती जिन हरी सु करिहै कौन भलाई,

    जागी काके मीत कलन्दर केहिके भाई।।

    सर्तसुलिए ज्ञात अंग्रेज हम केवल लेक्चर के तेज,

    श्रम बिन बातें सा करती हैं, कहुं टरकन गाजै टरती हैं।

    तब ताज कहां स्वतंत्रता नहिं चुप लातै खाव,

    राजा करै सो न्याय है, पासा परै सो दांव।।

    पं. प्रताप नारायण मिश्र का जन्म सुरसरि के तट पर बसे उन्नाव जनपद के बैजेगांव बेथर में हुआ था। अपनी 38 वर्ष की जीवन अवधि में मिश्र जी ने एक युग जिया और देश को जो दृष्टि दी वह स्वतंत्रता सेनानियों की प्रेरणा बनी।

    प्रताप नारायण मिश्र की अधिकांश रचनाएं 'ब्राम्हण' में प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त 'कवि वचन सुधा', 'भारत प्रताप' 'हिन्दी प्रदीप' एवं दैनिक पत्र 'हिन्दोस्थान' में समय-समय पर प्रकाशित होती रहीं।

    प्रतापनारायण जी को भारतेंदु जी की तरह नाटक मंचन से भी बहुत लगाव था। उन्होंने कई नाटक लिखे और कुछ में अभिनय भी किया। मिश्र जी की मृत्यु के बाद सन् 1902 और 1904 में इनकी दो नाट्य रचनाएं क्रमश: 'भारत दुर्दशा रूपक' और 'कलिकौतुक रूपक' वेंकटेश्वर मुद्रणालय बम्बई, भारत जीवन यंत्रालय काशी से प्रकाशित हुईं। मिश्र जी ने अनेक विषयों पर लेख लिखे। 'समझदार की मौत', 'बात', 'मनोयोग', 'घूरे का लत्ता बिनै' 'भौ' आदि गद्य प्रबंधों के शीर्षक के नाम से ही विषय की अनेकरूपता का पता चल जाता है।

    महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मार्च 1906 में 'सरस्वती' में पं. प्रताप नारायण मिश्र शीर्षक लंबा लेख लिखा। इसमें पहली बार पुस्तक रचना शीर्षक से अनूदित, गद्य, पद्य रचनाओं का उल्लेख, कुछ थोड़े से उद्धरणों के साथ हैं, परंतु वहां सभी रचनाएं नहीं आ सकीं।

    मिश्र जी के निबंधों का एक महत्वपूर्ण संग्रह 'प्रताप नारायण ग्रंथावली' प्रथम खंड डा. विनय शंकर मल्ल के संपादन में उनकी जन्मशती वर्ष में नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुआ। यह संग्रह अभी तक मिश्र जी के निबंध साहित्य का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ है। इसी के बाद सन् 1987 में कानपुर से नरेशचंद्र चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'प्रताप नारायण मिश्र' कवितावली संग्रह हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुआ।