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    Dada Saheb Phalke Death Anniversary : वाराणसी ने दादा साहब फाल्के को तिलक से मिलवाया और बन गए चलचित्र गुरु

    By Saurabh ChakravartyEdited By:
    Updated: Tue, 16 Feb 2021 09:50 AM (IST)

    भारतीय सिनेमा के संस्थापक धुंडीराज गोविंद यानी दादा साहेब फाल्के का मन जब फिल्म निर्माण से ऊब गया तो मायानगरी मुंबई को छोड़ काशी में आकर करीब दो साल त ...और पढ़ें

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    दादा साहेब फाल्के मुंबई को छोड़ काशी में आकर करीब दो साल तक 'रंगभूमि नाटक तैयार करने में लगे रहे।

    वाराणसी, जेएनएन। भारतीय सिनेमा के संस्थापक धुंडीराज गोविंद यानी दादा साहेब फाल्के (जन्म - 30 अप्रैल 1870, त्रयंबक, महाराष्ट्र और निधन - 16 फरवरी 1944, नासिक, महाराष्ट्र) का मन जब फिल्म निर्माण से ऊब गया तो मायानगरी मुंबई को छोड़ काशी में आकर करीब दो साल तक 'रंगभूमि नाटक तैयार करने में लगे रहे। यहीं उनके खिन्न मन को शांति मिली और दोबारा अपनी फिल्मों से दुनिया को चकित कर दिए। इसी के बाद वह विश्वप्रसिद्ध नाटककार और चलचित्र के आजीवन गुरु बने रहे। आज फिल्मी दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान उन्हीं के नाम पर है। इस महानता के पीछे बनारस में ब्रह्माघाट और दुर्गा घाट तक गुमनाम जीवन बिताना काफी अहम साबित हुआ। दादा साहब फाल्के की आटोबायोग्राफी के अनुसार जब बनारस में उनके नाटक का लेखन पूरा हो रहा था, तब बनारस में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भी मौजूद थे।

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    दुर्गाघाट के निकट स्थित आंग्रे का बाड़ा में उनकी भेंट लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हुई। संयोगवश तब तक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इसी घाट से वर्ष 1899 में उत्तर भारत में पहली बार गणपति बप्पा उत्सव की शुरूआत कर चुके थे। इसी सिलसिले में उनका यहां हर साल आना-जाना लगा रहता था। घाट पर रंगभूमि नाटक के मंचन के दौरान कई दृश्यों को तिलक ने एकाग्रचित होकर देखा और उसका भाव समझा। स्टेज पर नाटक के मंचन से संबंधित सभी जरूरतों को पूरा करने का वादा भी फाल्के से किया। तिलक उनके इस मराठी नाटक से इतने प्रभावित हुए कि अपने मराठी अखबार केसरी में उनकी फिल्मों और रचनाओं का प्रकाशन कर वृहद स्तर पर प्रोत्साहित किया। एक बार दादा जब बनारस में नाटक मंचन के दौरान प्रकाश में आ गए तो उनके द्वारा निर्मित भारत की पहली फिल्म हरिश्चंद्र विश्वेश्वर थिएटर में प्रदर्शित की गई थी।

    बनारस के राजा से हुए प्रभावित

    महाराष्ट्र के त्रयंबक शहर में त्रयंबकेश्वर महादेव के निकट जन्मे दादा साहब ने बनारस के राजा हरिश्चंद्र से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारत की पहली फिल्म ही बना डाली। उस दौर में जब देश-दुनिया रोमियो-जूलियट की फिल्मों में व्यस्त थी तब वह भारतीय सिनेमा में पौराणिक कथाओं और उनके आध्यात्मिक किरदारों को पेश किया।

    साझेदारों के आग्रह पर दोबारा गए मुंबई

    बनारस आने से पहले दादा साहब ने ङ्क्षहदुस्तान फिल्म्स कंपनी और आदर्श नाम से एक स्टूडियो तैयार कराया। कला पक्ष अपने पास रख दूसरों को इसका आर्थिक पक्ष संभालने की जिम्मेदारी दी। मगर साझेदारों की नीयत बिगडऩे पर वर्ष 1920 में वह अपने त्यागपत्र की घोषणा कर बनारस आ गए। बाद में कंपनी के हालात बदतर हो गए तो साझेदारों ने उन्हें दोबारा मुंबई आने का आग्रह किया। रंगभूमि नाटक को पूरा कर वह वापस मुंबई गए और कंपनी की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली। दादा साहब ने करीब 100 फिल्में बनाईं। इसमें फीचर, लघु फिल्म सहित कई वृत्त चित्र शामिल हैं।