Bharatendu Harishchandra Birth Anniversary : भारतेंदु ने हिंदी को पैरों पर खड़ा किया, भक्ति व श्रृंगार रस की बदली चाल
बाबू भारतेंदु अपनी ललित लेखनी से हिंदी को उंगली पकड़ाई और संकरी गलियों से निकल कर प्रगति के विशाल राजपथ पर उन्होंने ला खड़ा किया।
वाराणसी, जेएनएन। भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म उस समय हुआ। जब हिंदी की बालिका घुटनों के बल चलना सीख रही थी। देश में हिंदी साहित्य का सर्वदा अभाव था। हिंदी के साहित्य व पत्र-पत्रिकाओं में अरबी-फारसी शब्दों की भरमार थी। उर्दू के शब्द ज्यादा प्रयोग होते थे। हिंदी में गद्य साहित्य का लगभग अकाल था। काव्य साहित्य में भी भक्ति तथा श्रृंगार रस की पुराने चाल की रचनाएं हो रही थी। उस समय बाबू भारतेंदु (जन्म : 09 सितंबर 1850, निधन : 06 जनवरी 1985) अपनी ललित लेखनी से हिंदी को उंगली पकड़ाई और संकरी गलियों से निकल कर प्रगति के विशाल राजपथ पर उन्होंने ला खड़ा किया।
उन्होंने अनेक विषयों पर लेखनी चलाकर जनता के लिए उपयोगी ग्रंथों की रचना की। इस रचना प्रक्रिया में उन्होंने काव्य भाषा का संस्कार किया और गद्य की भाषा को स्वरूप निर्धारित किया। उन्होंने साहित्य को मोड़कर जीवन के साथ लगा दिया और हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था। उसे उन्होंने दूर किया। इस रचना प्रक्रिया में उन्होंने काव्य भाषा का संस्कार किया और गद्य की भाषा को स्वरूप निर्धारित किया। भाषा का निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ प्रकट हुआ। हिंदी भाषा और साहित्य पर उनका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे आधुनिक बोली के जन्मदाता माने गए। आधुनिक हिंदी भाषा के जनक हिंदी, साहित्य के पथ-प्रदर्शक व हिंदी साहित्य गगन में अपनी देदीप्यामान भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य की प्रत्येक विद्या को अपनी विलक्षण प्रतिभा से सुशोभित किया।
हिन्दी साहित्य के माध्यम से नवजागरण का शंखनाद करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म जन्म काशी में नौ सितम्बर, 1850 को हुआ था। जब वह पांच वर्ष के थे तो उनकी माता की की स्वर्गवास हो गया। वहीं नौ वर्ष की अवस्था में पिता ने उनका साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया। वहीं 16 वर्ष की अवस्था में उन्हें कुछ ऐसी अनुभति हुई, कि उन्हें अपना जीवन ङ्क्षहदी की सेवा में अर्पण करना है। आगे चलकर यही उनके जीवन का केन्द्रीय विचार बन गया। उन्होंने लिखा है।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान कै, मिटे न हिय को सूल।।
इनके पिता गोपालचन्द्र अग्रवाल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और गिरिधर दास उपनाम से भक्ति रचनाएं लिखते थे। घर के काव्यमय वातावरण का प्रभाव भारतेंदु जी पर पड़ा और पांच वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपना पहला दोहा लिखा।
लै ब्यौड़ा ठाड़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सैन्य को, हनन लगे भगवान्।।
यह दोहा सुनकर उनके पिताजी बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि तुम निश्चित रूप से मेरा नाम बढ़ाओगे। भारतेन्दु के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। उन्होंने देश के विभिन्न भागों की यात्रा की और वहां समाज की स्थिति और रीति-नीतियों को गहराई से देखा। इस यात्रा का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे जनता के हृदय में उतरकर उनकी आत्मा तक पहुंचे। इसी कारण वह ऐसा साहित्य निर्माण करने में सफल हुए, जिससे उन्हें युग-निर्माता कहा जाता है।
35 वर्ष की अवस्था में छोड़ दी दुनिया
भारतेंदु हिंदी में नाटक विधा तथा खड़ी बोली के जनक माने जाते हैं। साहित्य निर्माण में डूबे रहने के बाद भी वे सामाजिक सरोकारों से अछूते नहीं थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का सदा पक्ष लिया। 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पाठशाला खोली, जो अब हरिश्चन्द्र कालेज रूप विशाल वृक्ष बन चुका है। यह हमारे देश, धर्म और भाषा का दुर्भाग्य रहा कि इतना प्रतिभाशाली साहित्यकार मात्र 35 वर्ष की अवस्था में ही काल के गाल में समा गया। इस अवधि में ही उन्होंने 75 से अधिक ग्रन्थों की रचना की, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि केे रूप में रूप आज भी विद्यमान है।
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