अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविता में है मानवीय गरिमा, जयंती पर आजमगढ़ ने किया नमन
कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की जयंती उनकी जन्मस्थली आजमगढ़ के निजामाबाद में बुधवार को शारीरिक दूरी का ध्यान रखते हुए मनाई गई।
आजमगढ़, जेएनएन। कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की जयंती उनकी जन्मस्थली निजामाबाद में बुधवार को शारीरिक दूरी का ध्यान रखते हुए मनाई गई। सुबह नौ बजे अधिशासी अधिकारी प्रह्लाद पांडेय ने उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर नमन किया। इसके अलावा कस्बे में साहित्य प्रेमियों ने बारी-बारी से माल्यार्पण कर हिन्दी के विकास में उनके योगदान को याद किया।
ईओ ने कहा कि हरिऔध जी ने अपनी कविताओं से मानवीय करुणा, मानवीय गरिमा, मानवीय स्वतंत्रता की आकांक्षा, मान्यताओं एवं दृष्टिकोण की नई व्याख्या प्रस्तुत की। हरिऔध जी की कविताएं समाज को नई दिशा देने के साथ समाज का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समाज को जीवटता एवं बुद्धिमत्ता का पाठ पढ़ाती हैं। उन्होंने कहा कि पूरे देश में निजामाबाद कस्बा का नाम हरिऔध जी के नाम के कारण जाना जाता है। जिस खड़ी बोली को आज राष्ट्रभाषा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उसके विकास में हरिऔध जी का विशेष योगदान रहा। माल्यार्पण करने वालों में जितेंद्रहरि पांडेय, राकेश पाठक, वीरेंद्र नाथ मिश्र, डॉ. शाहनवाज, संतोष गोंड, मनोज राय आदि थे।
प्रिय प्रवास हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है।
हरिऔध जी निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात काशी के क्वींस कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए गए, किन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और 1884 में निजामाबाद में इनका विवाह निर्मला कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ। सन 1889 में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए। इस पद से सन 1932 में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। सन 1941 तक वे इसी पद पर कार्य करते रहे। उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए। इस अध्यापन कार्य से मुक्त होने के बाद हरिऔध जी अपने गांव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे। अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1947 में निजामाबाद में इनका देहावसान हो गया। पारितोषिक पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।