काशी के नक्शे पर उभरने लगा मिनी बंगाल का अक्स, दुर्गा पूजनोत्सव में डूबी महादेव बाबा विश्वनाथ की नगरी
टोले-मोहल्ले में ढाक के डंकों की धमक और गलियों में गुग्गुल व लोहबान के सुगंधित धूम की सुवास। महिषासुर मर्दिनी गीति-आलेख के मंत्रों की गूंज जात्रा की धूम और गगनचुंबी पंडालों में दिव्य ज्योति बिखेरती मां दुर्गा की चिन्मय प्रतिमाएं।

वाराणसी, जागरण संवाददाता। टोले-मोहल्ले में ढाक के डंकों की धमक और गलियों में गुग्गुल व लोहबान के सुगंधित धूम की सुवास। महिषासुर मर्दिनी गीति-आलेख के मंत्रों की गूंज, जात्रा की धूम और गगनचुंबी पंडालों में दिव्य ज्योति बिखेरती मां दुर्गा की चिन्मय प्रतिमाएं। इससे किसी को भी उत्सवी रंगों में सराबोर कोलकाता के किसी चौराहे पर खड़े होने का भ्रम हो सकता है। ...मगर यकीन मानिए, आप कोलकाता से 700 किलोमीटर दूर उस काशी नगरी में खड़े हैं, जो दुर्गोत्सव के आयोजन के साथ ही 'मिनी बंगाल' के रूप में बदल जाती है।
पुरनिए बताते हैं कि काशी में दुर्गापूजा की शुरुआत सैकड़ों वर्ष पहले चौखंभा के बंगाली ड्योढ़ी निवासी बसुमित्र परिवार ने की थी। इससे इतर मदनपुरा के पुरानी दुर्गाबाड़ी में स्थापित 242 वर्ष पुरानी प्रतिमा गवाही देती है कि काशी में दुर्गापूजा की शुरुआत इससे भी पहले की है। आज बंगाली बहुल इलाकों की सरहदों को लांघते हुए उत्सव नगर की गली-मोहल्लों तक फैल गया है। इसका अंदाजा इससे ही लगा सकते हैैं कि मात्र शहरी इलाके में 200 प्रतिमाएं स्थापित हैं। तमाम क्लबों ने इसकी कमान संभाल ली है। आरंभ में तो इस आयोजन को चंदे के दम पर अंजाम देते थे, लेकिन नगर के सबसे बड़े उत्सव के रूप में विस्तार पाने के बाद अब इस पर भी कारपोरेट कल्चर हावी है। प्रायोजक तलाश कर गीत-संगीत के आयोजनों का दौर।
सजावट भी ऐसी कि जैसे जमीन पर स्वर्गलोक उतर आया हो। अलग-अलग थीम पर पंडाल तो प्रतिमाओं के अंदाज भी जुदा-जुदा। काशी में बैठे-बैठे ही देश के विभिन्न पूजा स्थलों की झांकी का दर्शन सरीखा। ज्वलंत मुद्दों की बानगी का अनोखापन भी। विभिन्न रसीले पकवान व व्यंजन तक प्रसाद के रूप में। डांडिया की धूम भी शुरू हो गई है। हां, समय के साथ आस्था का पर्व भले ही व्यावसायिकता के रंग में रंग गया हो, लेकिन चारों ओर मेले का माहौल और गजब का उल्लास।
बच्चे-बूढ़े सभी इसमें डूबने-उतराने को आतुर। इनसे ठसी सड़कें और पंडालों में आस्था का हिलोरे मारता सैलाब भारी भीड़ के रूप में। हाथ जोड़े, शीश नवाते, प्रसाद को माथे से लगाते श्रद्धावानों की कतार ही दिखती है। बंगाली समुदाय की बात ही क्या? वर्षभर की कमाई का बचाया गया अंश अपनी-अपनी संस्थाओं को समर्पित कर सामूहिक पूजा के उल्लास का खजाना बटोरने में तल्लीन।
सुबह से शाम तक कभी पुष्पांजलि, कभी धुनूचि नृत्य में भागीदारी, फिर एक साथ बैठकर भोग प्रसाद जीमने का अवसर और रात में कोलकाता से आए 'जात्रा' के पंडाल में भरपूर मनोरंजन। माफ करना यार चार दिनों तक फुरसत का टोटा है। इसके आगे भी व्यस्तताएं हैं। प्रतिमा विसर्जन के जुलूस में शामिल होने के बाद 'विजया सम्मिलनी' में भी तो शिरकत जरूरी है। बाकी तो पूरा साल पड़ा है दुनियादारी की चखचख झेलने की खातिर।
उल्टी गंगा
काशी की दुर्गा पूजा किस हद तक लोकप्रिय है, इसका अंदाजा कोलकाता से पहुंचे हजारों-हजार लोग देते हैं। पूरा देश जहां कोलकाता की पूजा को आंखों में उतारने को आतुर रहता है, कोलकाता के ये लोग हर साल कम से कम दस दिन यहां के ही होकर रह जाते हैं। पूजा के बहाने नातेदारियां निभाने का भी मौका मिलता है और बेटियां बाबुल के घर लौटकर यह समय पूजा-पाठ में गुजारती हैं। मान्यता है कि शारदीय नवरात्र में दुर्गा मायके आती हैं। ससुराल से लौटीं बेटियों में भी देवी का रूप देखते हैं यहां के परंपरागत बंगीय परिवार।
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