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    अक्षय तृतीया पर हुआ था भगवान विष्णु के दशावतारों में छठा अवतार भगवान परशुराम के रूप में

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Tue, 03 May 2022 11:12 AM (IST)

    अक्षय तृतीया को जन्म लेने वाले भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं परशुराम जी अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्णु के दशावतारों में छठा अवतार भगवान परशुराम के रूप में हुआ। परशुराम त्रेतायुग में वैशाख शुक्ल तृतीया को प्रदोषकाल में महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका के गर्भ से अवतरित हुए।

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    Akshaya Tritiya 2022: इसी दिन हुआ था त्रेता युग का आरंभ

     प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री। सनातन संस्कृति की निरंतरता में तिथियों, त्योहारों एवं व्रत-पर्वों का योगदान सदा से चला आ रहा है। सनातन धर्म को परिपुष्ट करने में ये सभी शाश्वत सहायक रहे हैं। इन्हीं पर्वों से मनुष्य प्रेरित होकर स्वयं सद्कार्यों में लगकर आने वाली पीढिय़ों को भी दिशा निर्देश करता रहा है। व्रत, पर्व एवं त्योहारों की मूलाधार हैं तिथि। ज्योतिषशास्त्र की कालगणना में सर्वप्रथम तिथियों का ही क्रम आता है। इन तिथियों के जनक हैं सूर्य एवं चंद्रमा। जब ये दोनों एक ही बिंदु (अंश) पर स्थित रहते हैं, उस काल को अमावस्या तिथि कहा जाता है और सूर्य से अधिक तीव्र गति से चलने वाला चंद्रमा जब 12 अंश की दूरी पर हो जाता है, तब प्रतिपदा तिथि कही जाती है। इसी तरह 12-12 अंश के अंतराल पर कुल तीस तिथियां होती है।

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    वैदिक ज्योतिष ने तिथि को काल पुरुष का शरीर कहा है, सूर्य को आत्मा, चंद्रमा को मन तथा अन्य समस्त प्रकाशमान ज्योतिष पिंडों को नख से लेकर शिख रोम सहित संपूर्ण आवयवों को कालपुरुष का अंग-उपांग कहा है। वैदिक ऋषियों के द्वारा तिथियों के देवता निर्धारित किये गये हैं। जैसा प्रतिपदा तिथि का स्वामी अग्नि, द्वितीया का ब्रह्मा, तृतीया की गौरी तथा चतुर्थी के गणेश आदि हैं। इसी तरह सभी तिथियों के अधिदेवता है। कुछ तिथियों की विशेष संज्ञाएं भी बतायी गयी हैं- अखंड, अघोर, अचल, अनंत तथा अक्षय। जब कभी कोई विशिष्ट घटना किसी तिथि विशेष को घटित हुई थी, तब उस तिथि को विशेष महत्त्व दिया गया। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को अनंत की संज्ञा अनंत भगवान के प्राकट्य के कारण कही गयी। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु के शयन करने से हरिशयनी एकादशी को अखंड तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधनी एकादशी ऐसे ही सत्य युग के आरंभ का प्रथम दिन होने से कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी तथा वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया को अक्षय तृतीया कहा गया है।

    इस अक्षय तृतीया को त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था, अतएव युगादि (युग के आदि) की तिथि होने से यह अत्यंत पुण्यदायिनी हो गयी। नारद जी का कथन है- 'त्रेतादिर्माघवे शुक्ला तृतीया पुण्यसम्मिता'। पुराणों के अनुसार, इस दिन भगवान परशुराम का प्राकट्य हुआ था तथा हयग्रीव भगवान ने इसी तिथि को प्रकट होकर मधु कैटभ द्वारा हरण किए गये वेदों का उद्धार करते हुए वेदों ब्रह्मा जी को प्रदान किया था। अतएव भगवान हयग्रीव जयन्ती भी इसी तिथि को मनायी जाती है। इस तिथि को धर्म के नर नारायण को भी अवतार हुआ था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव ने लम्बी तपश्चर्या को पूर्ण करके इसी तिथि को पाराणा की थी। इसी दिन भगवान् बद्रीनाथ जी का कपाट खुलता है और विधिवत पूजा अर्चना की जाती है। वृन्दावन में भगवान् बांके बिहारी जी के श्रीविग्रह का दर्शन वर्ष में केवल एक बार इसी दिन होता है।

    मत्स्यपुराण, विष्णुधर्मोत्तर एवं नारदपुराण में अक्षय तृतीया के महत्त्व पर विशेष प्रकाश डाला गया है। इन पुराणों के अनुसार, इस दिन किया गया कोई भी अशुभ या शुभ कृत्य अक्षय हो जाता है और वह जन्म जन्मान्तर में दु:ख या सुख प्रदान करता रहता है। अतएव इस दिन किसी भी प्रकार के अशुभ कार्यों को मनसा, वचसा, कर्मणा नहीं करना चाहिए। गंगा स्नान या समुद्र स्नान करना चाहिए, तत्पश्चात् भगवान के अर्चन-पूजन के पश्चात मंत्र जप, स्तोत्र पाठ तथा अग्नि में हवन एवं पितृतर्पण, श्राद्ध के साथ-साथ यथा संभव दान आदि करना चाहिए। धर्मग्रंथों में इस तिथि के दिन व्रत का विधान भी बताया गया है। व्रत का अभिप्राय उपासना, तप, अनुष्ठान, यज्ञ, आचार, आज्ञापालन, संकल्प देवताओं के दर्शन तथा किसी नये उपक्रम या विधान को संपन्न करने से है। मात्र अन्न, जल का त्याग या फलाहार करना व्रत की परिभाषा के अनुरूप नहीं है। इस दिन दान की महिमा बताते हुए व्यास जी ने कहा है कि जलपात्र के दान से अक्षय कीर्ति, स्वर्णदान से सभी इच्छित कामनाओं की पूर्ति, घी या औषधि के दान से नीरोगता, छाता या उपानह के दान से विपत्ति से रक्षा, गोदान से अमृतत्व की प्राप्ति, भूमिदान से स्वर्ग की प्राप्ति तथा अन्नदान करने से समस्त पापों से मुक्ति हो जाती है।

    भगवान विष्णु का यह आवेशावतार था। पौरुष के रूप में उनकी वीरता अद्वितीय थी। उन्होंने गणेश जी से युद्ध के समय उनका एक दांत काट दिया था तथा अपने पराक्रम से भगवान शंकर को संतुष्ट कर उनसे पिनाक धनुष प्राप्त किया था, जिसे कालांतर में विदेहराज जनक को प्रदान कर दिया गया था। वहीं भगवान् विष्णु ने अपना शारंग धनुष परशुराम जी को यह कहकर प्रदान किया था कि जब कोई इसे चढ़ा देगा, तब जान लेना कि मेरा पूर्णावतार हो गया है। मान्यता है कि भगवान के अन्य अवतार तो धर्म स्थापन करके विष्णु लोक में चले गये, पर परशुराम जी चिरंजीवी अवतार धारण कर पृथ्वीलोक में ही रह गये। भगवान् परशुराम जब तक ईश्वरी शक्ति धारण किए थे, तब तक उनके समक्ष मानव क्या, देवता भी युद्ध के लिए प्रस्तुत नहीं होते थे। तात्कालीन युग में परशुराम जी का क्रोध समाज एवं राष्ट्र के संरक्षण के साथ लोक मंगलकारी था, किंतु जब अत्यंत अत्याचारी सहस्रार्जुन की भुजाओं का उच्छेद करने के पश्चात् भी आवेश का शमन नहीं हुआ, तब भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लेकर धर्म एवं मर्यादा की स्थापना की। अवतारवाद का मूलत: अर्थ है प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में ईश्वरतत्त्व की भावना करना। इसी के लिए ईश्वरीय शक्तियां समय-समय पर अवतरित होती रहती हैं। ऐसी उदात्त दृष्टि सनातन संस्कृति में ही देखने को मिलती हैं, जहां मानव ही नहीं, पशु- पक्षी, जलचर विशेष में भी भगवद् दृष्टि रखकर हम अपने हृदय को ईश्वरमय बनाकर इस दुर्लभ मानव शरीर को सार्थक कर सकते हैं। यही संदेश मानवमात्र को भगवान परशुराम से ग्रहण करना चाहिए।

    [अध्यक्ष ज्योतिष विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, बीएचयू, वाराणसी]