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    स्वातंत्र्य साहित्य : 1857 की क्रांति के सौ साल बाद का संस्‍मरण 'गदर के फूल' में दर्ज है क्रांति गाथा

    By Abhishek SharmaEdited By:
    Updated: Sun, 03 Jul 2022 12:24 PM (IST)

    अमृत महोत्सव के अवसर पर पढ़ें हिंदी कथा साहित्य के पुरोधा अमृतलाल नागर की संस्मरणात्मक कृति गदर के फूल में चित्रित प्रथम स्वाधीनता संग्राम के शब्द चित्रों पर विश्लेषणात्मक आलेख। क्रांति गाथा के पूरे एक दशक का संस्‍मरण पुस्‍तक में है दर्ज।

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    उपन्यासकार अमृतलाल नागर की कृति 'गदर के फूल' का एक विशिष्ट स्थान है।

    डा. श्रुति मिश्रा, वाराणसी, उत्तर प्रदेश। 1857 की क्रांति पर लिखे गए कथा साहित्य में दिग्गज उपन्यासकार अमृतलाल नागर की कृति 'गदर के फूल' का एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि इसमें वर्णित सभी प्रकरण उनके द्वारा की गई गहनशोध पर आधारित तथ्यों को सामने लाते हैं। क्रांति के सौ वर्ष के बाद नागर जी ने संबंधित क्षेत्र का दौरा किया और जनश्रुति के रूप में सुनी जा रही कथाओं को तथ्यात्मक रूप से अपनी विशिष्ट और रोचक शैली में लिपिबद्ध किया। इस कृति को उन्होंने विशेष रूप से 18 वर्षीय क्रांतिनायक चहलारी के ठाकुर बलभद्र सिंह को तथा लखनऊ के निकटस्थ नवाबगंज, बाराबंकी आदि क्षेत्रों के लगभग छह सौ निवासियों को श्रद्धा सुमन रूप अर्पित किया है जिन्होंने जान हथेली पर लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में भाग लिया था।

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    संस्मरण के आरंभ में ही ठाकुर बलभद्र सिंह की कीर्तिगाथा का स्मरण करते हुए उन्होंने लिखा है कि सौ वर्ष से अधिक की कालावधि के उपरांत आज भी बाराबंकी के गांव-गांव में उनकी शूरवीरता के किस्से कहे जाते हैं। कहा जाता है कि जिसे शत्रु भी सराहें वही वास्तविक विजेता है। अवध की धरती का यह लाड़ला 18 वर्षीय सेनानी भारतीय वीरों के इतिहास में अभिमन्यु की भांति सदैव गौरवशाली स्थान पाएगा।

    इन प्रसंगों को पढ़ते हुए कुछ ऐसी अनुभूति होती है मानों पुरातत्व का कोई शोधार्थी अवशेषों की खोज में भूमि की किसी भी गहराई तक जाने को तत्पर है। अमृतलाल नागर क्रांति तथा उससे जुड़े हर छोटे-बड़े सूत्र को पकड़कर उसका विश्लेषण करते हैं। संबंधित क्षेत्रों का वर्णन आरंभ करते हैं तो उसमें विद्रोह की तिथि भी अंकित करते चलते हैं। मसलन, बाराबंकी चार जून, फैजाबाद आठ जून, सुल्तानपुर नौ जून आदि। यह भी अपने आप में अद्भुत है कि नागर जी सुल्तानपुर पहुंचने के लिए नौ जून की वही तारीख चुनते हैं जब इसी दिन 100 वर्ष पूर्व सुल्तानपुर में गदर का श्रीगणेश हुआ था। वे बताते हैं कि कर्नल फिशर सुबह के समय मिलिट्री पुलिस लाइन से लौट रहा था जब उसे पीछे से गोली मारी गई थी। नागर जी रास्ते में उस खंडहरनुमा कोठी को देखते हुए गुजरते हैं जहां कर्नल फिशर की हत्या हुई थी।

    अलग-अलग स्थानों के वर्णन में उस स्थान की विशेषता और तत्स्थान संबद्ध क्रांति के पुरोधाओं का भी वर्णन करते जाते हैं जो कि क्रांति की आपबीती को एक जीवंत और ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान करता है। नागर जी स्थान के साथ उस समय वहां के प्रसिद्ध विद्रोहियों का उल्लेख करते चलते हैं जैसे प्रसाद शुक्ल और अच्छन खां (अयोध्या), राम चरण दास जो कि हनुमानगढ़ी के पुजारी तथा वहां के बलवाइयों की नेता थे। बुझावन पांडे जो की सुप्रसिद्ध विद्रोही श्री मंगल पांडे के सगे भतीजे थे और मूलत: अवध की पृष्ठभूमि से जुड़े हुए थे।

    नागर जी, नवाब वाजिद अली शाह द्वारा सन् 1857 के विद्रोह में मौलवी अहमदुल्लाह को किसी प्रकार का संरक्षण या उन्हें सहयोग की संभावना से इनकार करते हैं और बताते हैं कि नवाब किसी बौद्धिक सिद्धांतवश नहीं, अपितु अपनी रसिक वृत्ति का अत्यधिक दास होने के कारण झगड़े-फसाद से कोसों दूर भागते थे।

    1857 की क्रांति के कठिन दिनों को नागर जी बड़े मार्मिक तरीके से अभिव्यक्त करते हैं और कहते हैं कि जाने कितने बड़े, मझोले ऐसे परिवार होंगे, जो क्रांति में अपनी लाखों की हैसियत खोकर कौड़ी-कौड़ी के मोहताज हो गए। वे बताते हैं कि किस प्रकार स्वर्गीय ख्वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित दिल्ली के शहजादे और शहजादियों की दुर्दशा के विवरण पढ़कर कई वर्षों पहले वे फूट-फूटकर रोए थे। किस तरह कल का शहजादा आज का भिखारी, कल की शहजादी आज के किसी अति साधारण नौकरीपेशा व्यक्ति की स्त्री बन गई थी।

    नागर जी के इन संस्मरणों की विशेष बात यह भी है कि उन्होंने 1857 की क्रांति के नायकों की क्रांति संबंधी संलग्नता और वैशिष्ट्य के अतिरिक्त उनके बारे में जो भी जनप्रचलित अवधारणाएं प्रचारित हुई हैं उनकी भी तथ्यात्मक पड़ताल कर कई बार जन अवधारणाओं से भिन्न अपने तटस्थ मत को पाठकों के समक्ष रखा है।

    अमृतलाल नागर मानते हैं कि 1857 की क्रांति में वास्तव में हमारी तरह-तरह की कमजोरियां ही हारीं। गदर के बाद, भारतीय नवयुवक उन कमजोरियों का नाश करने के लिए तरह-तरह से कटिबद्ध होने लगे थे। वे क्रांति और उसके बाद के काल की तुलना करते जाते हैं और स्पष्टीकरण देते हैं कि विगत वैभव के गुण ग्रहण करना ही यदि विगत वैभव की पूजा करना है तब तो वह निश्चित रूप से सराहनीय है, अन्यथा पिछले जमाने पर कोरी आहें भरना तो अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। समय के वार को सह पाना ही हमारे पुरुषार्थ का प्रतीक होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि हम स्वयं के अंदर विद्यमान शक्ति को समय आने पर आजमा सकने का साहस रखें।

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