पूरे फागुन सुनाई देता था फाग, अब सिर्फ होली के दिन
संवाद सहयोगी हसनगंज आधुनिक संगीत के दौर में लोग त्योहारों पर पारंपरिक व लोक गीत भूलते
संवाद सहयोगी, हसनगंज : आधुनिक संगीत के दौर में लोग त्योहारों पर पारंपरिक व लोक गीत भूलते जा रहे हैं। जिसमें बात की जाए होली के दौरान फाग की तो पहले पूरे फागुन इस लोकसंगीत के स्वर गांव-गांव गूंजते थे। अब जहां लोग पुरानी संस्कृति और परंपराओं को छोड़ते दिखाई दे रहे हैं। वहीं कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में महज होली वाले दिन ही फाग की परंपरा रह गई है।
होली के त्योहार सिर्फ रंग और पकवानों तक ही नहीं सीमित है। इसमें लोग पुराने गिले शिकवे भूल कर एक दूसरे के साथ हो जाते हैं। मोहान, चिरियारी, धौरा, भोगला, कमालपुर, नयोत्नी, शंकरपुर आदि गांव में पुरानी परंपरा कायम है। जहां गांव के लोग एक दूसरे के घर पर पहुंचकर फाग गाते हैं। फाग परंपरा में जाति, धर्म, अमीर, गरीब का भेदभाव नहीं रहता। न ही पुरानी रंजिश, मन मुटाव रहती है। गांव में देर रात तक फाग गाए जाते हैं। बेनी खेड़ा के सत्यपाल सिंह बताते हैं कि फागुन मास आते ही जगह-जगह फाग गीतों व ढोल मजीरों की आवाजें लोगों को घरों से निकलने को विवश कर देती थी। लोग साथ बैठकर पारंपरिक फाग गीतों का आनंद लेते थे। मोहान के राधेश्याम रावत ने बताया कि 1960-70 के दशक में फाल्गुन माह आते ही गांवों में कई स्थानों पर फाग गीत गाने वालों की महफिलें सजने लगती थी। लेकिन वक्त के साथ-साथ सब कुछ बदल गया है। जग्गू सिंह ने बताया कि फगुवा गायन में विशेषकर ताल, अर्ध तीन ताल, दादरा, कहरवा का आनंद अब दुर्लभ हो गया है।
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