...और वन्यजीवों व प्रकृति से प्रेम कर बैठीं मेनका गांधी Sultanpur News
1980 में पति संजय गांधी के निधन के बावजूद परिस्थितियों से किया जंग। 1984 में पहली बार अमेठी से लड़ीं लोसचुनाव।
सुल्तानपुर [धर्मेन्द्र मिश्रा]। 26 अगस्त को अपने जिंदगी के 63 साल पूरा करने वाली मेनका गांधी का जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण व संघर्षपूर्ण रहा। साल 1980 में अमेठी से पहली बार सांसद चुने गए संजय गांधी बेहद कम उम्र में देश में अपनी अलग पहचान बनाकर लोकप्रिय हो चुके थे। तब मेनका गांधी की उम्र महज 23-24 साल रही होगी। 70-80 के दशक में जनसंख्या व पर्यावरण प्रदूषण के खिलाफ जंग छेड़ व पांच सूत्री कार्यक्रम चलाकर संजय गांधी ने यह जता दिया था कि उनकी सोच बेहद दूरदर्शी है। वह लगातार देश में विशेष ख्याति अर्जित करते जा रहे थे।
इसी बीच एक विमान दुर्घटना ने भारतीय राजनीति के इस चमकते सितारे की जीवनलीला को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। इससे पत्नी मेनका गांधी के ऊपर दु:खों का बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। उस वक्त संजय गांधी के बेटे वरुण गांधी की उम्र महज 100 दिन ही थी। ऐसे में वरुण के साथ स्वयं को संभालना व खुद को स्थापित करना मेनका के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था, लेकिन वह हौसला नहीं हारीं।
प्रकृति एवं वन्य जीवों की सेवा को बनाया जिंदगी का ध्येय
संजय गांधी के निधन के सदमे से उबरने व उनके सपनों के भारत बनाने के संकल्प को लेकर मेनका गांधी ने आगे बढऩे का फैसला किया। इस दौरान मेनका गांधी ने प्रकृति व वन्यजीवों एवं गरीबों की सेवा को ही जिंदगी का सबसे बड़ा ध्येय बना लिया। खुद को स्थापित करने के लिए वर्ष 1982 में राजनीति में उतरने का साहसिक फैसला किया और संजय विचार मंच नामक राजनीतिक संगठन का गठन किया।
पहली बार अमेठी से लड़ीं चुनाव
पहली बार मेनका 1984 में अमेठी लोकसभा सीट से अपने जेठ राजीव गांधी के खिलाफ बतौर संजय विचार मंच प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरी थीं। हालांकि, उन्हें इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
राजनीति की दिशा व दशा तय करने वाला था 1984 का चुनाव
1984 का चुनाव देश में गांधी परिवार की राजनीति की दिशा व दशा तय करने वाला था। यह भी तय होना था कि आगे चलकर किस गांधी परिवार का राजनीति में वर्चस्व स्थापित होगा। आखिरकार इस चुनाव में जीत के साथ राजीव गांधी ही गांधी परिवार व कांग्रेस के असली वारिस सिद्ध हुए। चुनाव परिणाम आने के बाद मेनका हमेशा के लिए सुल्तानपुर छोड़ गईं। यहीं से देश की राजनीति में दो गांधी परिवार की सियासी राह भी अलग हो गई।
आठवीं बार चुनी गईं सांसद
सुल्तानपुर छोड़ने के बावजूद मेनका ने जिंदगी से हार नहीं मानी। उन्होंने पीलीभीत को अपना नया ठिकाना बनाया और वहां से लगातार सात बार सांसद चुनी गईं। 2019 में वह सुल्तानपुर सीट पर पुन: वापस आईं और यहां की पहली महिला सांसद बनीं। वह कई बार केंद्र में मंत्री रहीं। मोदी सरकार-1 में भी उन्होंने महिला एवं बाल विकास मंत्री के तौर पर काम किया। अपने बेटे वरुण गांधी को भी काबिल नेता बनाया। 2003-04 के दौरान वह दोनों भाजपा में शामिल हो गए। देश भर में उन्हें पर्यावरण व वन्यजीवों के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने बेजुबानों के खिलाफ क्रूरता को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी संगठन बनाया। वह इसके लिए अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित हो चुकी हैं।
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