हमने तो जन्म से पहाड़ जिए और भी कठोर हुई जिंदगी
सोनभद्र : 'हमने तो जन्म से पहाड़ जिए और भी कठोर हुई जिंदगी' सोनांचल की पहाड़ियों में पहाड़ की तरह की जिंदगी गुजारने वाले हजारों श्रमिकों के लिए शासन की जन कल्याणकारी योजनाओं से शायद कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। बीपीएल, अंत्योदय राशनकार्ड बना है कि नहीं पता ही नही। फिर सस्ते दर पर खाद्यान्न मिलने या न मिलने का सवाल ही पैदा नहीं हो रहा है। ये वे हैं जिनके हाथ में सब्बल और हथौड़े के पाले हैं और नंगे पांवों में बिवाइयां हैं। इन्हीं के दम पर क्रशर मालिकों के बंगलों में रौनक है। जहां काच के गिलास में हर शाम से रात तक अंगूरी ढलती रहती है। काजू भुनी प्लेटों से लोग दाना चुगते हैं। महफिल देर तक चहकती रहती है। माइकल जैक्सन की स्टाइल में झूमती है। यह एक ऐसा पक्ष है जिसे खुशहाल जिंदगी के रसूखदार लोग कहे जाते हैं। ये वे हैं जिनकी पहुंच सत्ता के गलियारों में रहती है। सरकार किसी की बने इनकी पकड़ हर बार मजबूत रहती है। लाख शिकायत हो इनके खिलाफ कोई सुनवाई नहीं होती। रंगीन बत्तियों में सफर करने वाले के इनसे गहरे रिश्ते रहते हैं। चांदी के चंद सिक्कों की खनक से ये अच्छे अच्छों को कदम ताल करवाते हैं। 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे इन्हीं के खदानों में विस्फोट करके पत्थर की बड़ी-बड़ी चट्टानों को ढहाने का काम करते हैं। फिर वहीं काम शुरू होता है जिसमें विभिन्न स्थानों पर हजारों श्रमिक हाड़तोड़ परिश्रम करके मुश्किल से पेट की आग बुझा पाते हैं। एक अदद झोपड़ी ही इनका आशियाना रहती है। सर्द हवाओं का झकोरा हो अथवा झमाझम बरसती बरसता हो या फिर रेगिस्तान की तरह तपती दोपहरी में तवे की तरह तपता पहाड़ हो सभी मौसम में यही मड़इया ही एक मात्र सहारा बनी रहती है। 'वह तोड़ती पत्थर उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर' के किरदार इन्हीं पहाडि़यों में देखना हो तो आसानी से खनन क्षेत्रों में जाया जा सकता है। लाख टके का सवाल है कि क्या इस असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की समस्याओं की तरफ राजनीतिक दलों के नेताओं का ध्यान नहीं जाना चाहिए। क्या सामान्य निर्वाचन 2012 में इन श्रमिकों की समस्याओं को मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। बहरहाल अब तो ऐसा नहीं लगता कि इन मजदूरों की मुसीबतों को कोई प्रत्याशी कोई ठोस आश्वासन भी देगा नहीं। वजह वक्त निकल चुका है। विधानसभा क्षेत्र के चुनाव प्रचार का अभियान भी थम गया है। स्टार प्रचारकों के आने का सिलसिला भी सोमवार को थम गया है। अब शायद आकाश में चील की तरह मंडराते हेलीकाप्टर की झलक देखने को न मिले। वजह मतलब अब निकलने जा रहा है। शायद ही इन्हें कोई पहचाने ये वहीं है जो खदानों में काम करते समय कभी कभार दुर्घटना में दमतोड़ देते हैं। पंजीकृत श्रमिक न होने के कारण न कोई मुआवजा देता है और न ही दिलाने वाला ही कोई नजर आता है। इन्हें और उनके परिजनों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है। चिकित्सा सुविधा के नाम पर चंद करेंसी नोटों की हरियाली दिखा कर मृतक श्रमिकों के मुंह पर टेप लगाने जैसा उतायोग करने में खनन कर्ता माहिर होते हैं। प्रशासन और पुलिस के लोग भी इस तरह के आम आदमी की मौत को ज्यादा अहमियत देना मुनासिब नहीं समझते। महिला श्रमिकों की हर तरह का शोषण किया जाता है। 'रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी, जिसने जिस्म गिरवी रखकर ये कीमत चुकाई है' अदम गोंडवी की ये लाइन यहां की हकीकत बयां करती लगती है। गर्म रोटी की महक इन्हें पागल बना देती है। इनके लिए न तीज है न ही त्योहार। सब कुछ पहाड़ की कंदराओं में तोड़ते पत्थर से उम्र गुजर जाती है। बच्चे कब बूढ़े हो गए पता ही नहीं चलता। सर्व शिक्षा अभियान, जनन सुरक्षा योजना, निर्बल आवास, विधवा एवं वृद्धा पेंशन का ये मतलब भी नहीं समझते। अविश्वसनीय गरीबी और फटेहाली भरी जिंदगी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है।
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