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    सामाजिक एकता व समरसता विकास की कुंजी

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 06 Oct 2021 11:35 PM (IST)

    विकास इंटर कालेज खेसरहा बांसी के प्रधानाचार्य प्रकाश सिंह ने कहा कि सामाजिक एकता व समरसता एक दूसरे के पूरक हैं। समरसता से ही सामाजिक एकता बनती है। यह एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से क्रियान्वित करना समाज एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है।

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    सामाजिक एकता व समरसता विकास की कुंजी

    सिद्धार्थनगर : विकास इंटर कालेज खेसरहा, बांसी के प्रधानाचार्य प्रकाश सिंह ने कहा कि सामाजिक एकता व समरसता एक दूसरे के पूरक हैं। समरसता से ही सामाजिक एकता बनती है। यह एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से क्रियान्वित करना समाज एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है। इसके लिए हमें सामाजिक एकता व समरसता के अर्थ का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। संक्षेप में इसका अर्थ है सामाजिक समानता। यदि व्यापक अर्थ देखें तो इसका अर्थ है - जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़ मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गों एवं वर्णो के मध्य एकता स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है। इस बात को हृदय से स्वीकार करना चाहिए। यदि देखा जाए तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह का भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के कई साल बाद भी आक्रमणकारियों ने हमारे धार्मिक ग्रंथों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी जिससे उनमें कई विकृतियां आ गईं जिसके कारण आज भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज की पहली इकाई परिवार होता है। परिवार का तात्पर्य एक पति-पत्नी से उत्पन्न संतानों के समूह को ही परिवार नहीं माना जाता है अपितु उन सदस्यों के मध्य आपसी भावनात्मक संबंधों पर परिवार का अस्तित्व निर्भर करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक एकता का तात्पर्य समाज के सदस्यों के मध्य आपसी भावनात्मक संबंधों का अध्ययन है। मनुष्य समाज का एक भावनात्मक प्राणी है। भावना के कारण ही वे एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं और भावना के कारण ही वे एक-दूसरे से दूरी बनाते हैं। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति रक्त, जाति, स्थान, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, भाषा, साहित्य, धर्म, आचार-विचार आदि किसी भी समानता के कारण एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और किसी अन्य कारण से उनमें सरलता से अलगाव की संभावना नहीं होती है तो हम कहते हैं कि उनके बीच सामाजिक भावात्मक एकता है। अर्थात हम सभी को अपने परिवार के बीच एक ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिससे सामाजिक समरसता को बल मिल सके। हमारे देश के किसी भी पंथ-संप्रदाय, समाज सुधारक व संत ने मनुष्यों के बीच किसी भेदभाव समर्थन नही किया है। तभी हमारे देश में अनेक भाषा, धर्म व संप्रदाय के लोग होने के बाद भी देश की एकता व अखंडता पर कभी आंच नही आने पाती।

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