चाक की तरह चकरघिन्नी बनी कुम्हारों की जिन्दगी
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सम्भल। चिलचिलाती दोपहर में नंगे बदन मिट्टी से जूझते कुम्हार परिवारों के लोग अपना तन-बदन जला कर भीषण गर्मी में बच्चों के लिए खिलौने, दीपावली पर दीपक, शादी और मृत्यु भोजन के लिए कुल्हड़ और सकोरा, और गर्मी में शीतल जल उपलब्ध करने के लिए घड़े और सुराहियां बनाने लगे रहते हैं। ये लोग शासन की उपेक्षा और कमर तोड़ महंगाई के चलते आर्थिक संकट से जूझ रहे है।
मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उपयुक्त चिकनी मिट्टी की तलाश से शुरू होने वाली दिनचर्या कुम्हार जाति के लोगों के लिए शाम कब और कहा हो जाये ये पता ही नहीं चल पाता। ये लोग प्रात: हाते ही मिट्टी की तलाश में निकल जाते है। बमुश्किल इतनी मिट्टी का ही इंतजाम कर पाते है कि एक वक्त की रोटी का इंतजाम हो सके। इनकी मिट्टी ढूढ़ने से लेकर लाने व ले जाने की प्रक्रिया इतनी जटिल है। कुम्हार जाति के बच्चे बचपन में पढ़ने और खेलने के समय को दरकिनार कर मिट्टी को अपना भविष्य मानकर इसको विभिन्न प्रकार के रूपों में तराशने के लिए दिन रात लगे रहते है और मिट्टी को आकार देने की कला में अभ्यस्त होते ही अपने पेट के लिए दो जून की रोटी का इंतजाम करने में लग जाते है। यह बच्चे अपने खुद के वजन से अधिक मिट्टी का बोझ सिर पर लादे, गीली मिट्टी के साथ छेड़छाड़ करने के साथ इनकी जिंदगी भी वक्त की धुरी पर चाक की भाति चकरघिन्नी बनी हुई है। भीषण तपिश में हाथों के छाले सहलाते वे मासूम बच्चें और चाक पर विद्युत गति के साथ हर कत करती उनकी नन्हीं उंगलियों कि कशीदाकारी से तैयार मिट्टी के बर्तनों के माध्यम वर्गीय लोगों को राहत तो पहुंचाती है परन्तु चन्द सिक्के फेकने वालों को शायद ही यह आभास हो कि इसमें इन बच्चों के पसीने की गंध भी मिली हुई है। कुशल कारीगरी के जरिये मिट्टी में प्राण फूंक देने वाले कुम्हार जाति के लोग गली, चौराहों, बाजारों, साप्ताहिक पैठों, मेलों में आवाज लगाकर सामान बेचते ये गरीब आज आर्थिक समस्या से बेतरह जूझ रहे है। लेकिन बाबजूद इसके अपने पेट के लिए दो जून की रोटी एकत्रित कर ही लेते है। वर्तमान के मशीनी युग में लगे लोग विलासिता की ओर भाग रहे है। लेकिन यह लोग इन सब से बेफ्रिक अपने कार्य में मशगूल है। कमर तोड़ मंहगाई में इन लोगों का कहना है कि जो घड़ा आज से दस वर्ष पूर्व 20 रूपये का बिकता था। मसलन आज 50 से 60 रूपये के मध्य बिक रहा है। इससे साफ लगता है कि वर्षो से मंहगाई ने जहां नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये है, वहीं इनके घड़े आज भी जहां के तहां पड़े हुये है। उनका कहना है कि हालात तेजी के साथ बदलते जा रहे है और मंहगाई जीने के सारे रास्ते बन्द करने पर तुली है। शासन की उपेक्षा के कारण विभिन्न समस्याओं से कुम्हार उभर नहीं पा रहे है। उनके सामने समस्याओं का अंबार बढ़ता ही जा रहा है। दैनिक उपयोग के साथ-साथ शादी विवाह में एकाएक बड़ा प्लास्टिक के बर्तनों का चलन इन कुम्हारों के लिए अत्यधिक संकट पैदा कर रहा है पहले शादी विवाह व अन्य कार्यक्रमों में चाय पानी के लिए कुल्हड़ों का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन वर्तमान में इन कुल्हड़ो व सकोरों का स्थान प्लास्टिक निर्मित प्लेटों च दोने ने लिया है, जिससे उनके सामने आर्थिक समस्या भी बड़ी बेरहम बनकर उभरने लगी है। कुम्हार जाति की बिडम्बना
ही कहा जायेगा। कि इनके बच्चों का दुर्भाग्य है की तेज गति के साथ धूमते चाक पर बाजीगरी दिखाते कई मासूम हाथ पराये बच्चों के लिए फुरसत के क्षणों में खिलौने भी बनाते है। लेकिन उनकी उपेक्षा विधाता ने खिलौने खेलने का अधिकार भी छीन लिया है। कुम्हार जाति के बच्चों को मालूम है कि उनकी पराये बच्चों का दिल बहलाने के लिए नंगे बदन खिलौने बनाने की नहीं बल्कि खिलौने के साथ खेलने की ही वर्तमान हालतों को ही भाग्य का लिखा हुआ मान बैठे। ये मासूम चाक कि धुरी पर अनजान से घूम रहे है। इन सबके बाबजूद स्थानीय जनप्रतिनिधि उन लोगो की समस्याओं से वाकिफ हो कर भी अनजान बने हुये है। कई वर्षो से इस जाति कि मिट्टी कि खुदाई नगर अथवा इसके आस-पास के क्षेत्र में किसी तलाब या जमीन आंवटित करने की जोरदार मांग की जाती रही है। परन्तु किसी भी जनप्रतिनिधि ने इनकी सबसे बड़ी समस्या को सुनना तो दूर, सुनना भी पसंद नहीं किया। मिट्टी की तलाश में भटकती बूढ़ी आंखें इस बात को लेकर फिकर मंद है। कि इसी गति से चिकनी मिट्टी, चिकने पेट वालों की रखैल बनी रही तो आने वाले समय में दो जून की रोटी कैसे मयस्सर होगी?

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