दीन-दुखियों की सेवा ही धर्म मानती थी मदर टेरेसा
अजय सक्सेना, सहारनपुर : अपने लिए तो हर कोई जीता है लेकिन दुनियां में कुछ विरले लोग ही ऐसे होते है जो
अजय सक्सेना, सहारनपुर : अपने लिए तो हर कोई जीता है लेकिन दुनियां में कुछ विरले लोग ही ऐसे होते है जोकि दूसरों के लिए जीते है। ऐसी ही महानता की प्रतिमूर्ति का नाम है मदर टेरेसा। जिन्होंने पूरी ¨जदगी दीन-दुखियों की सेवा को ही अपना परम धर्म माना। सहारनपुर समेत पूरी दुनिया में उनका स्थापित किया गया सेवा संस्थान संचालित हैं।
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को 'यूगोस्लाविया' में हुआ, उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे तथा रोमन कैथोलिक संगठन के सक्रिय सदस्य थे। 12 वर्ष की अल्पायु में ही उनके हृदय में करुणा के बीज अंकुरित हुए तथा उनका असली नाम 'अगनेस गोंझा बोयाजिजू' था। उनके पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था, लालन-पालन उनकी माता ने किया। पांच भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थीं। उनकी बड़ी बहन आच्च की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। गोंझा एक सुन्दर जीवंत, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढ़ना, गीत गाना वह विशेष पसंद था। वह और उनकी बहन आच्च गिरजाघर में प्रार्थना की मुख्य गायिका थीं। गोंझा को एक नया नाम 'सिस्टर टेरेसा' दिया गया। यह नया जीवन एक नए देश में जोकि उनके परिवार से काफी दूर था, सहज नहीं था लेकिन सिस्टर टेरेसा ने बड़ी शांति का अनुभव किया।
मदर टेरेसा का भारत आगमन
सिस्टर टेरेसा तीन अन्य सिस्टरों के साथ आयरलैंड से एक जहाज से 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता में 'लोरेटो कॉन्वेंट' पहुंचीं। अच्छी अनुशासित शिक्षिका होने के कारण विद्यार्थी उन्हें बहुत प्यार करते थे। वर्ष 1944 में वह सेंट मेरी स्कूल की प्रधानाचार्या बनीं। मदर टेरेसा ने आवश्यक नर्सिंग ट्रे¨नग पूरी की तथा पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं। सन 1949 में मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय व अस्वस्थ लोगों की मदद के लिए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की, जिसे 7 अक्टूबर, 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी। इसी के साथ ही उन्होंने पारंपरिक वस्त्रों को त्यागकर नीली किनारी वाली साड़ी पहनने का फैसला किया।
सेवा को बनाए आश्रम
मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों की स्वयं सेवा करती थीं। ऐसे लोगों पर इस महिला ने अपनी ममता व प्रेम लुटाकर सेवा भावना का परिचय दिया।
मिशनरी•ा की स्थापना
मदर टेरेसा मात्र अठारह वर्ष की उम्र में में दीक्षा लेकर वे सिस्टर टेरेसा बनी थीं। इस दौरान 1948 में उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला और तत्पश्चात 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की। मदर टेरेसा की मिशनरीज संस्था ने 1996 तक करीब 125 देशों में 755 निराश्रित गृह खोले जिससे करीबन पांच लाख लोगों की भूख मिटाया जाने लगी।
समाजसेवा का व्रत
मदर टेरेसा ने भारत आने के बाद बेसहारा और विकलांग बच्चों तथा सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा और फिर वे भारत से मुँह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं तथा यहीं रहकर जनसेवा का व्रत ले लिया। मदर टेरेसा ने भ्रूण हत्या के विरोध में सारे विश्व में अपना रोष दर्शाते हुए अनाथ एवं अवैध संतानों को अपनाकर मातृत्व-सुख प्रदान किया। उन्होंने फुटपाथों पर पड़े हुए रोत-सिसकते रोगी अथवा मरणासन्न असहाय व्यक्तियों को उठाया और अपने सेवा केन्द्रों में उनका उपचार कर स्वस्थ बनाया।
सम्मान और पुरस्कार
मदर टेरेसा को पीड़ित मानवता की सेवा के लिए विश्व के अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें पद्मश्री 1962, नोबेल पुरस्कार 1979, भारत का सर्वोच्च पुरस्कार'भारत रत्न'1980 में, मेडल आफ फ्रीडम 1985 प्रमुख हैं। विश्व भर में फैले उनके मिशनरी के कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। उन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धनराशि को भारतीय गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल किया।
मदर टेरेसा पर भी लगे आरोप
अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा पर कई तरह के आरोप भी लगे। उन पर गरीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर इसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी ¨नदा हुई। मानवता की रखवाली की आड़ में उन्हें इसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था। लेकिन कहते हैं ना जहां सफलता होती है वहां आलोचना तो होती ही है। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गईं। वहीं उन्हें पहला हृदयाघात आया। इसके बाद साल 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया। लगातार गिरती सेहत की वजह से 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में लिप्त थीं। पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में मदर टेरेसा को धन्य'' घोषित किया था।
मदर टेरेसा के अनमोल वचन
- मैं चाहती हूँ कि आप अपने पड़ोसी के बारे में ¨चतित रहें। क्या आप अपने पड़ोसी को जानते हैं?
-यदि हमारे बीच कोई शांति नहीं है, तो वह इसलिए क्योंकि हम भूल गए हैं कि हम एक दूसरे से संबंधित हैं।
-यदि आप एक सौ लोगों को भोजन नहीं करा सकते हैं, तो सिर्फ एक को ही भोजन करवाएं।
-यदि आप चाहते हैं कि एक प्रेम संदेश सुना जाय तो पहले उसे भेजें। जैसे एक चिराग को जलाए रखने के लिए हमें दिए में तेल डालते रहना पड़ता है।
- प्यार करीबी लोगों की देखभाल लेने से शुरू होता है, जो आपके घर पर हैं।
-अकेलापन और अवांछित रहने की भावना सबसे भयानक गरीबी है।
- प्यार हर मौसम में होने वाला फल है, और हर व्यक्ति के पहुंच के अन्दर है।
- आज के समाज की सबसे बड़ी बीमारी कुष्ठ रोग या तपेदिक नहीं है, बल्कि अवांछित रहने की भावना है।
-प्यार की भूख को मिटाना रोटी के लिए भूख की मिटने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।
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