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    सफलता प्राप्ति के लिए जीवन में आत्म संयम का होना बहुत जरूरी

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 28 Oct 2020 10:22 PM (IST)

    आत्मसंयम अर्थात मन एवं इंद्रियों को वश में रखना। हमारा मन यदि वश में है तो किसी भी प्रकार का लोभ या मोह हमें पथ भ्रष्ट नहीं कर सकता। ...और पढ़ें

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    सफलता प्राप्ति के लिए जीवन में आत्म संयम का होना बहुत जरूरी

    आत्मसंयम अर्थात मन एवं इंद्रियों को वश में रखना। हमारा मन यदि वश में है तो किसी भी प्रकार का लोभ या मोह हमें पथ भ्रष्ट नहीं कर सकता। मनुष्य की पहचान उसके मन से ही होती है और मन की गति बहुत तीव्र होती है। जो व्यक्ति अपने मन पर नियंत्रण रखना जानता है, वह आत्मसंयम के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। लेकिन, जो अनियंत्रित गति से दौड़ रहे मन के साथ कदम मिलाते हुए आगे बढ़ते हैं, उन्हें काफी कष्ट उठाना पड़ता है। उदाहरण के लिए एक छात्र को ही ले लें। परीक्षा की तैयारी करते समय यदि उसका मन इधर-उधर भागेगा तो पढ़ाई में नहीं लग पाएगा। ऐसे में वह परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने से वंचित रह जाएगा। परीक्षा भवन में भी बहुत से विद्यार्थी सब कुछ याद होते हुए भी केवल इसलिए मात खा जाते हैं कि प्रश्नपत्र सामने आते ही वे धैर्य खो बैठते हैं और जल्दी-जल्दी प्रश्नपत्र हल करने की घबराहट में या तो आधा अधूरा करके आते हैं या फिर गलत उत्तर लिख कर आ जाते हैं। यदि पढ़ाई करते समय ही उन्हें अपने मन एवं भावनाओं पर नियंत्रण रखने तथा धैर्य के साथ प्रश्नों को समझ कर उनका उत्तर देने की शिक्षा दी जाए तो उनके प्रदर्शन में बहुत सुधार हो सकता है। इस प्रकार आत्म संयम का दूसरा अर्थ हुआ धैर्य। जीवन के हर क्षेत्र में धैर्यवान रहने की आवश्यकता होती है। जब मन पूर्ण रूप से स्थिर एवं एकाग्र होता है तभी उसकी शक्ति सकारात्मक कार्यों में व्यय होती है। क्रोध, ईष्र्या, द्वेष, लोभ, मोह, स्वार्थ ये सब मन के भटकने के ही कारण हैं। मन की इस भटकन के साथ कोई भी कार्य एकाग्रता से नहीं हो सकता। आत्म संयम से ही प्रबल इच्छा शक्ति उत्पन्न होती है और प्रबल इच्छाशक्ति से परिपूर्ण व्यक्ति ही प्रगति पथ पर अग्रसर हो सकता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि जिस तरह दीमक अपने निवास के निर्माण के लिए धीरे-धीरे बांबी बनाती है, उसी तरह हमें भी परलोक में अपने जीवन को सुधारने के लिए किसी भी अन्य जीव को कष्ट पहुंचाए बिना पुण्य कर्मों का संग्रह करना चाहिए। वास्तव में हृदय की विशालता, सौम्यता, उदारता, आत्म संयम तथा निष्कपट स्वभाव, ये सब एक साथ मिलकर मानसिक पवित्रता कहलाते हैं। आत्मसंयम के साथ समस्त कार्य करना ही मानसिक तप कहलाता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति ²ढ़निश्चयी होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में उसे सफलता ही हाथ लगती है। आत्म संयमित व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उसका हृदय शांत हो जाता है तथा वह आत्मज्ञान को प्राप्त होता है।यद्यपि ऐसा करना कठिन है, किन्तु यह ही वास्तविक निर्वाण भी है तथा जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति का सोपान भी। इसके लिए अधिक कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। बस प्रतिदिन निश्चित समय पर स्वच्छ स्थान व शुद्ध आसन पर बैठकर, सब ओर से ध्यान हटाकर सर्वप्रथम सांस को नियंत्रित करने का प्रयास करें, क्योंकि यदि इसकी गति नियमित नहीं होगी तो ध्यान में एकाग्रता नहीं आ पाएगी। इसके बाद अपने लक्ष्य पर ध्यान एकाग्र करने का प्रयास करें। प्रारंभ में कठिनाई होगी। लेकिन, धीरे धीरे ध्यान लगने लगेगा। ध्यान की ही अवस्था में अपने भीतर झांकने का प्रयास करें। इस प्रकार धीरे-धीरे मन संयमित होने लगेगा।

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    -दयालु शरण शर्मा, प्रधानाचार्य, एसआरएम इंटर कालेज, मिलक, रामपुर