शरीर की चर्बी खोलेगी दिमागी बीमारियों से मुक्ति का मार्ग, IIT के शोधकर्ताओं ने खोजी नई तकनीक
प्रयागराज स्थित भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों ने पार्किंसन अल्जाइमर और रीढ़ की चोट जैसी बीमारियों के लिए एक नई तकनीक खोजी है। इस तकनीक में शरीर की चर्बी से स्टेम सेल निकालकर उन्हें विशेष द्रव्य में डाला जाता है जिसमें खास प्रोटीन होते हैं। ये प्रोटीन कोशिकाओं को दिमाग की कोशिकाओं में बदलने का निर्देश देते हैं।

मृत्युंजय मिश्र, प्रयागराज। पार्किंसन, अल्जाइमर या रीढ़ की चोट से जुड़ी बीमारियों का नाम सुनते ही मन डर जाता है। ये बीमारियां धीरे-धीरे व्यक्ति की याददाश्त, सोचने की क्षमता और शरीर के संतुलन को खत्म कर देती हैं।
अब तक इनका कोई स्थायी इलाज नहीं था, सिर्फ लक्षणों को कुछ समय के लिए दबाने वाली दवाएं थीं। लेकिन अब प्रयागराज स्थित भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइआइटी) के विज्ञानियों ने एक ऐसी खोज की है जो लाखों मरीजों के जीवन में नई रोशनी भर सकती है।
हमारे शरीर की वसा यानी चर्बी, जो अक्सर मोटापे का कारण मानी जाती है, वही अब दिमाग की टूटी हुई कोशिकाएं बनाने में मदद कर सकती है। दरअसल, हमारी चर्बी में स्टेम सेल्स होते हैं, जो विशेष परिस्थिति में किसी भी प्रकार की कोशिका में बदल सकते हैं।
इसी क्षमता का उपयोग करते हुए आइआइआइटी में अप्लाइड साइंसेस विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ संगीता सिंह और उनकी शोध छात्रा आयुषी गुप्ता ने एक नई तकनीक विकसित की है।
इस तकनीक में शरीर की चर्बी से स्टेम सेल निकालकर उन्हें एक विशेष द्रव्य में डाला गया। इस द्रव्य में दो खास प्रकार के प्रोटीन एनजीएफ (नर्व ग्रोथ फैक्टर) और बीडीएनएफ (ब्रेन डिराइव्ड न्यूरोट्रोपिक फैक्टर) मिलाए गए।
ये प्रोटीन कोशिकाओं को यह निर्देश देते हैं कि उन्हें दिमाग की कोशिकाओं (न्यूरान्स) में बदलना है। लेकिन समस्या यह थी कि ये प्रोटीन बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और कोशिकाएं अपना रास्ता भटक जाती थीं।
इसी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने चिटोसन नैनोकैरियर नाम की तकनीक का सहारा लिया। यह शोध इंटरनेशनल जनरल फार बायोलाजिकल मैक्रो मालीक्यूल्स में भी प्रकाशित हो चुका है।
क्लीनिकल ट्रायल होंगे शुरू
डॉ संगीता और आयुषी गुप्ता ने बताया कि अब तक कोशिकाओं की बनावट और प्रोटीन के स्तर पर सफल परिणाम मिले हैं।
अब दूसरे चरण में इस शोध को क्लीनिकल ट्रायल के स्तर ले जाया जाएगा। जिसमें देखा जाएगा कि ये कोशिकाएं सोचने, समझने और प्रतिक्रिया देने के लायक बन पाती हैं या नहीं। इसके लिए आगे चलकर कैल्शियम इमेजिंग और पैच-क्लैम्प जैसे टेस्ट किए जाएंगे, जिससे यह पता चलेगा कि ये नई कोशिकाएं दिमागी संकेतों को पहचानती हैं या नहीं।
पार्किंसन, अल्जाइमर, रीढ़ की हड्डी से जुड़ी चोटों और दिमागी क्षति वाले मरीजों के लिए यह खोज एक बहुत बड़ी आशा है। अब उनका इलाज शरीर से ही निकली कोशिकाओं से हो सकेगा। न कोई लंबी सर्जरी, न जटिल प्रक्रिया बल्कि एक वैज्ञानिक तकनीक जो प्राकृतिक रूप से काम करेगी।
क्या है चिटोसन नैनोकैरियर
चिटोसन एक प्राकृतिक पदार्थ है जो केकड़ों के खोल से बनता है। इसे नैनो-कणों में बदला गया और फिर उसमें एनजीएफ को भर दिया गया। अब यह नैनोकैरियर धीरे-धीरे एनजीएफ को कोशिकाओं तक पहुंचाता है, जिससे स्टेम सेल्स को लगातार सही दिशा मिलती रहती है।
इससे कोशिकाएं स्थिरता से न्यूरान्स जैसी बनावट अपनाने लगती हैं। जब इन कोशिकाओं की जांच की गई तो पता चला कि इनमें वही प्रोटीन मार्कर दिखने लगे जो असली न्यूरान्स में होते हैं। यानी शरीर की चर्बी की कोशिकाएं अब सचमुच दिमाग की कोशिकाओं में बदल रही थीं।
स्मृति खो चुके मरीज, लकवे से जूझ रहे लोग या दिमागी चोट से पीड़ित व्यक्ति अब शरीर की चर्बी से ही नया जीवन पा सकते हैं। इसके केंद्र में एक छोटा सा चिटोसन नैनोकैरियर है। हमारी कोशिश इसे और बेहतर बनाने की है। फिलहाल यह शोध प्रयोगशाला में सफल हुआ है। अगले चरण में क्लीनिकल परीक्षण होगा। लेकिन इतना तय है कि यह खोज चिकित्सा क्षेत्र के लिए मील का पत्थर बन सकती है।
डॉ संगीता सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर, IIT, इलाहाबाद
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