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    1857 Revolution in Prayagraj : विद्रोही सिपाहियों, तीर्थपुरोहितों व मेवातियों ने हिला दी थी ब्रितानी हुकूमत

    Updated: Sun, 10 Aug 2025 02:31 PM (IST)

    प्रयागराज में 1857 की क्रांति एक ज्वालामुखी की तरह थी जिसमें दबे आक्रोश ने जन्म लिया। तीर्थ पुरोहितों मेवातियों और सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया जिसमें सैकड़ों अंग्रेज मारे गए। अंग्रेजों ने क्रूर दमन किया गांवों को जला दिया और हजारों लोगों को फांसी पर लटका दिया था।

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    प्रयागराज का खुसरोबाग आज भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम, विद्रोह, बलिदान और स्वतंत्रता की कहानी बयां करता है।

    जागरण संवाददाता, प्रयागराज। वर्ष 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में वह ज्वालामुखी था, जिसमें लंबे समय से दबा आक्रोश फट पड़ा। मेरठ में 10 मई को भड़की चिनगारी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) पहुंची तो ज्वाला बन गई।

    छह जून 1857 से आगे यह धरा रणभूमि में बदल गई। यहां के तीर्थपुरोहितों, मेवातियों, विद्रोही सिपाही और क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को सबक सिखाने की ठानी। सब उनके सामने सीना तानकर खड़े हो गए। सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। हजारों भारतीयों का नरसंहार भी हुआ। यह संघर्ष केवल युद्ध नहीं था, यह आत्मसम्मान और अस्तित्व की लड़ाई थी।

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    मेरठ की क्रांति की सूचना प्रयागराज पहुंची तो अंग्रेजी शासन में भय की लहर दौड़ गई। भनक लग चुकी थी कि पांच जून को क्रांतिकारियों का दल प्रयागराज किले की तरफ बढ़ रहा है। ब्रिटिश अधिकारियों ने खजाने, कारागार और मुख्य सड़कों की सुरक्षा के लिए प्रतापगढ़ से सेना की दो टुकड़ियां बुलाई।

    अंग्रेजों ने विद्रोहियों को रोकने के लिए दारागंज में यमुना नदी पर बने नौका पुल पर तोपें और पैदल सेना तैनात कर दी। छह जून को विद्रोह की पहली गर्जना सुनाई दी। स्वतंत्रता सेनानियों ने दारागंज के नौका पुल पर कब्जा कर लिया, किले पर धावा बोला और लेफ्टिनेंट एलेक्जेंडर समेत कई अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। रेल और टेलीग्राफ की लाइनें उखाड़ दी गईं ताकि अंग्रेजों का संचार तंत्र ठप पड़ जाए।

    जेल के फाटक तोड़े गए और लगभग तीन हजार कैदी आजाद कर दिए गए। किले में रखे 32 लाख रुपये का खजाना भी क्रांतिकारियों के हाथ आ गया।इस संघर्ष में ब्रितानी फौज को भारी हानि हुई। कई अंग्रेज अफसर व सिपाही मारे गए। उधर सात जून को महगांव से मौलवी लियाकत अली अपने सिपाहियों के साथ इलाहाबाद पहुंचे।

    खुसरोबाग विद्रोह का मुख्यालय बना। दरबार सजा, जिसमें मौलवी लियाकत अली के नेतृत्व की घोषणा के साथ 21 तोपों की सलामी दी गई। इसके बाद समदाबाद और रसूलपुर के मेवाती पठान इस संग्राम में कूद पड़े।

    कर्नल नील का आगमन और भीषण युद्ध

    विद्रोह की खबर जब कर्नल नील तक पहुंची तो वह बनारस से फौज के साथ निकला और 11 जून 1857 को उसने क्रांतिकारियों और विद्रोही सिपाहियों पर हमला कर दिया। क्रांतिकारियों और कर्नल नील की फौज के बीच भीषण युद्ध हुआ। मेवाती, क्रांतिकारी और तीर्थपुरोहित स्वतंत्रता की लड़ाई में आगे रहे। स्वतंत्रता सेनानी बहादुरी से लड़े पर ब्रिटिश फौज के सामने वह ज्यादा टिक नहीं पाए। इलाहाबाद पहुंचने के चार दिन के भीतर 15 जून तक कर्नल नील ने मुट्ठीगंज, कीडगंज पर कब्जा कर लिया। इसके बाद खुसरोबाग पर हमला किया। 15 जून को उसने दरियाबाद और सादियाबाद पर धावा बोला। इसके बाद मौलवी लियाकत अली को पकड़ने के लिए खुसरोबाग पर तोपों से हमला किया।

    क्या कहते हैं इतिहासकार

    इतिहासकार प्रो. योगेश्वर तिवारी कहते हैं कि तीर्थपुरोहित विद्रोह के अग्रणी योद्धा बन गए। व्यापारी मेवाती समुदाय क्रांति का महत्वपूर्ण स्तंभ बने। मेवातियों ने अंग्रेजों का गोला-बारूद ढोने से मना कर दिया। क्रांतिकारियों के साथ हो गए। यह प्रतिरोध अंग्रेजों के लिए सीधा चुनौती पत्र था।

    कर्नल नील का खूनी दमन

    क्रांति की लपटें थमते ही कर्नल नील ने अपना असली चेहरा दिखाया। विद्रोहियों का सफाया करने के नाम पर उसने नरसंहार शुरू कर दिया। समदाबाद, छीतपुर, रसूलपुर सहित आठ गांव को जलवा दिया। प्रो. योगेश्वर दस्तावेजों का हवाला देकर कहते हैं कि तीन घंटे 40 मिनट के भीतर 640 पुरुष, महिलाओं और बच्चों को फांसी पर लटका दिया गया। सड़कों पर चलते किसी भी व्यक्ति को गोली मार दी जाती थी। बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे कोई भी अंग्रेजों की बर्बरता से बच नहीं पाया। मेवातियों का मुख्य गांव समदाबाद अंग्रेजों के अत्याचार का गवाह बना।

    गांवों को अंग्रेजों ने चारों ओर से घेर लिया

    जिन मेवातियों ने अंग्रेजों की मदद करने से मनाकर क्रांतिकारियों का साथ देते हुए किले पर धावा बोलकर 842 असलहे और 32 लाख रुपये हथिया लिए थे, उनके गांव को अंग्रेजों ने चारों ओर से घेरकर कत्लेआम किया। संग्राम में 6846 लोगों को मारा गया। पेड़ों पर लाशें लटकाई गईं। बच्चों को गोद में लिए माताएं तक काट दी गईं। अपमान से बचने के लिए स्वयं फांसी लगा लेती थीं। शासकीय अभिलेखों में दर्ज है कि तीन महीने तक रोज आठ बैलगाड़ियों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक लाशें ढोई जाती रहीं। कहीं भी सड़क किनारे या बीच बाजार लोगों को फांसी दे दी जाती थी।

    इसके बाद अंग्रेजों ने सिविल लाइंस बसाया

    विद्रोह के बाद जिन आठ गांवों को जला दिया गया, उन्हीं की जमीन पर अंग्रेजों ने सिविल लाइंस बसाया। 1870 में ड्यूक अल्फ्रेड के हाथों 133 एकड़ में अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आजाद पार्क) की नींव रखी गई। तब इस पार्क में आम जनता का प्रवेश वर्जित था। समदाबाद की जगह पर ही कंपनीबाग का निर्माण हुआ।