अपराध का राजफाश हो जाने के बाद नहीं रद हो सकती FIR- इलाहाबाद हाई कोर्ट का बड़ा फैसला
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि यदि एफआईआर से किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है तो अदालत उसे रद्द नहीं कर सकती। कोर्ट ने गाजियाबाद के एक मामले में दो अलग एफआईआर को सही ठहराया। एक अन्य मामले में, हाई कोर्ट ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर नौकरी प्राप्त करने को पूरी प्रणाली को दूषित करने वाला बताया और एक सहायक अध्यापक की याचिका खारिज कर दी।
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विधि संवाददाता, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा है कि सामान्यतया अदालत दर्ज एफआइआर को रद नहीं कर सकती। जब एफआइआर से किसी संज्ञेय अपराध का राजफाश नहीं हो रहा हो अथवा अपराध की विवेचना जारी रखना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग लगे तभी हाई कोर्ट दर्ज एफआइआर पर हस्तक्षेप कर सकती है।
एक ही घटना को लेकर दूसरी एफआइआर दर्ज नहीं की जा सकती, लेकिन तथ्य तथा अवधि पृथक हों तो भले ही पृष्ठभूमि एक हो दूसरी प्राथमिकी दर्ज कराई जा सकती है। इसे एक ही घटना को लेकर दूसरी एफआइआर नहीं कहा जा सकता।
इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह तथा न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत शुक्ल की खंडपीठ ने गाजियाबाद निवासी पारूल बुधराजा व तीन अन्य की याचिका खारिज कर दी है। कोर्ट ने झांसा देकर कर निवेश कराने के आरोप में पीड़ित के भाई की एफआइआर और बाद में फर्जी दस्तावेज, फर्जी नोटरी से गुमराह करने के आरोप में स्वयं पीड़ित की ओर से दर्ज कराई गई एफआइआर को अलग- अलग अपराध माना।
कहा कि पीड़ित द्वारा दर्ज कराई गई एफआइआर एक ही घटना में दर्ज दूसरी एफआइआर नहीं नहीं मानी जा सकती। दर्ज एफआइआर से अपराध का राजफाश हो रहा है। याचीगण पारूल बुधराजा, योगेश राना,वेद बुधराजा तथा शील कालरा का कहना था कि मामले में पहले पीड़ित के भाई ने एफआइआर कराई थी।
इसमें अपराध नहीं बनता देख पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी तो परेशान करने के लिए घटना के पांच साल बाद पीड़ित ने उसी घटना की दूसरी एफआइआर कराई है। यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग व अनुच्छेद 14,20व 21 के तहत मूल अधिकारों का हनन है। इसलिए केस रद किया जाए।
छल कपट से मिली नौकरी जारी रखने की अनुमति देना पूरी प्रणाली को दूषित करना
हाई कोर्ट ने कहा है कि फर्जी दस्तावेज के आधार पर छल से प्राप्त नौकरी को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, यह पूरी प्रणाली को दूषित करती है। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने सहायक अध्यापक कृष्णकांत की याचिका खारिज करते हुए की है। मुकदमे से जुड़े तथ्य यह हैं कि याची की नियुक्ति मृतक आश्रित कोटे में मार्च 1998 में हुई थी।
20 साल नौकरी करने के बाद छोटी बहन स्नेहलता से उसका विवाद हुआ। स्नेहलता ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत की कि कृष्णकांत ने फर्जी दस्तावेज के आधार पर नौकरी प्राप्त की है। विभागीय जांच में शिकायत सही पाई गई। बीते जुलाई माह में याची की सेवा समाप्त कर दी गई। इसे हाई कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।

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