लिव-इन में रहने वालों को सुरक्षा देने से हाई कोर्ट का इनकार, जस्टिस बोले- अवैध संबंध के लिए नहीं मांग सकते सिक्योरिटी
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन में रह रहे एक जोड़े को सुरक्षा देने से मना कर दिया। अदालत ने कहा कि महिला अभी कानूनी रूप से अपने पति के साथ विवाहित है, इसलिए उसकी स्वतंत्रता पति के कानूनी अधिकार से ऊपर नहीं हो सकती। न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह ने स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत पहले से विवाहित व्यक्ति किसी अवैध संबंध के लिए सुरक्षा नहीं मांग सकता, क्योंकि ऐसा संबंध सामाजिक ढांचे में स्वीकार्य नहीं है।

विधि संवाददाता, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन में रहने वाले एक जोड़े को सुरक्षा प्रदान करने से इन्कार कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला अब भी विधिवत रूप से अपने पति के साथ वैवाहिक संबंध में है, ऐसे में 'किसी एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे के कानूनी अधिकार से ऊपर नहीं हो सकती।' न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत पहले से विवाहित कोई भी कानून-पालक नागरिक किसी अवैध संबंध के लिए अदालत से सुरक्षा नहीं मांग सकता, क्योंकि यह देश की सामाजिक संरचना के दायरे में स्वीकार्य नहीं है।
'अवैध संबंधों को अप्रत्यक्ष सहमति देने' जैसा - हाई कोर्ट
सात नवंबर को पारित आदेश में हाई कोर्ट ने कहा कि यदि पुलिस को जोड़े को सुरक्षा देने का निर्देश दिया जाता है, तो यह 'अवैध संबंधों को अप्रत्यक्ष सहमति देने' जैसा होगा। याचिका सोनम और उसके लिव-इन पार्टनर की ओर से दायर की गई थी, जिसमें पुलिस और महिला के पति को उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप न करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, 'पति या पत्नी दोनों को एक-दूसरे का साथ पाने का वैधानिक अधिकार है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर किसी अन्य के इस अधिकार का हनन नहीं किया जा सकता।
वैधानिक अधिकार को करेगा प्रभावित
इसलिए ऐसे मामलों में सुरक्षा देना दूसरे जीवनसाथी के वैधानिक अधिकार को प्रभावित करेगा।' कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि महिला को अपने पति से कोई शिकायत है, तो वह कानून के अनुसार पहले उनसे अलग होने की प्रक्रिया अपनाए। कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि किसी भी वैधानिक या दंडात्मक प्रविधान के विपरीत जाकर आदेश जारी नहीं किया जा सकता। याचिकाकर्ताओं के पास ऐसा कोई कानूनी रूप से संरक्षित या न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय अधिकार नहीं है, जिसके आधार पर वे अदालत से इस प्रकार के निर्देश की मांग कर सकें।

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