Gyanvapi Case: पौने चार साल में 45 दिन सुनवाई, दो बार निर्णय सुरक्षित
ज्ञानवापी परिसर विवाद मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 45 दिनों में सुनवाई पूरी की। कुल तीन साल नौ महीना एक दिन का समय निर्णय सुनाए जाने में लगा। चार न्यायमूर्तियों ने समय-समय पर सुनवाई की। इससे पहले दो बार फैसला सुरक्षित किया गया किंतु सुनाया नहीं जा सका। सबसे पहले यह मामला न्यायमूर्ति अजय भनोट की पीठ के सामने प्रस्तुत किया गया।
कृष्णजी शुक्ला, प्रयागराज। ज्ञानवापी परिसर विवाद मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 45 दिनों में सुनवाई पूरी की। कुल तीन साल नौ महीना एक दिन का समय निर्णय सुनाए जाने में लगा। चार न्यायमूर्तियों ने समय-समय पर सुनवाई की। इससे पहले दो बार फैसला सुरक्षित किया गया, किंतु सुनाया नहीं जा सका। सबसे पहले यह मामला न्यायमूर्ति अजय भनोट की पीठ के सामने प्रस्तुत किया गया। न्यायमूर्ति भनोट की पीठ ने पहली बार सुनवाई करते हुए अंजुमन इंतेजामिया कमेटी की याचिका पर अंतरिम राहत देते हुए वाराणसी जिला अदालत में लंबित सिविल वाद की सुनवाई पर रोक लगा दी।
इसके बाद यह मामला न्यायमूर्ति प्रकाश पाड़िया की पीठ के सामने आया। न्यायमूर्ति प्रकाश पाड़िया ने इसकी सुनवाई 35 दिन की और दो बार फैसला सुरक्षित किया। इसी साल अगस्त में दूसरी बार सुरक्षित किए गए फैसले की तिथि के दिन यह प्रकरण तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति प्रीतिंकर दिवाकर के समक्ष एक प्रशासनिक आदेश के तहत सुनवाई के लिए प्रस्तुत किया गया।
मुख्य न्यायमूर्ति ने चार तारीखों पर सुनवाई की। हालांकि, इंतेजामिया कमेटी और सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से केस स्थानांतरित किए जाने पर आपत्ति की गई। मुख्य न्यायमूर्ति की पीठ ने इंतेजामिया मसाजिद कमेटी की अर्जी खारिज कर दी। मुख्य न्यायमूर्ति के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली। नवंबर 23 में प्रकरण न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल की पीठ के सामने भेज दिया गया। उनकी पीठ के समक्ष यह मामला पांच तिथियों पर प्रस्तुत किया गया। इसके बाद पीठ ने तीन तिथियों पर सुनवाई पूरी कर आठ दिसंबर को फैसला सुरक्षित कर लिया। मंगलवार 19 दिसंबर को ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया।
मस्जिद पक्ष की दलील पूजा स्थल अधिनियम के तहत रामजन्मभूमि को छोड़कर देश के सभी पूजा स्थलों की 15 अगस्त 1947 की धार्मिक स्थिति में बदलाव नहीं किया जा सकता। वर्तमान सिविल वाद इस कानून के तहत पोषणीय नहीं है। इसलिए आदेश 7 नियम 11के तहत अर्जी स्वीकार कर वाद निरस्त किया जाए क्योंकि पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में बदलाव नहीं किया जा सकता। l दीन मोहम्मद केस में विवाद तय हो चुका है इसलिए हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। वक्फ संपत्ति को लेकर सिविल वाद पोषणीय नहीं है। वक्फ अधिकरण ही सुनवाई कर सकता है।
मंदिर पक्ष का तर्क l 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने शिव मंदिर का निर्माण कराया। मुस्लिम शासकों ने ध्वस्त किया। अकबर के मंत्री टोडरमल की मदद से नारायण भट्ट ने पुनर्निर्माण कराया। l 18 अप्रैल 1669 में मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। अवशेष से आलमगीर मस्जिद बनवाई। जमीन का मालिकाना हक नहीं लिया और न ही मस्जिद का हक तय किया। बाद में अवैध रूप से अनधिकृत तौर पर वक्फ संपत्ति दर्ज की गई। वक्फ एक्ट हिंदुओं पर लागू नही। स्मृति व पुराणों के अनुसार सतयुग से आज तक परिसर मंदिर ही रहा।
हाई कोर्ट के समक्ष तीन मुद्दे थे पहला
1991 का कानून सिविल वाद पर लागू होगा और आदेश 7 नियम 11 के तहत वाद निरस्त किया जा सकता है? दूसरा: साइंटिफिक सर्वे आदेश पर अनुच्छेद 227 की याचिका में हस्तक्षेप हो सकता है? तीसरा अदालत ने अंतरिम रोक के बावजूद वाद की सुनवाई की? मुस्लिम पक्ष की खारिज पांच याचिकाओं का विवरण 1991 में वाराणसी की अदालत में पं.सोमनाथ व्यास एवं अन्य की ओर से दाखिल किए गए मुकदमे की पोषणीयता को लेकर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से इलाहाबाद हाई कोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई थी।
इस मुकदमे में वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन फास्ट ट्रैक) ने वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी के प्रार्थना पत्र को स्वीकार करते हुए ज्ञानवापी परिसर का एएसआई सर्वे कराने का आदेश दिया था। इस आदेश के खिलाफ सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से हाईकोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गईं थीं। l पांचवीं याचिका अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से हाई कोर्ट में दायर की गई थी जिसमें वाराणसी की सिविल जज (सीनियर डिवीजन फास्टट्रैक) की अदालत में लंबित इस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगाने की अपील की गई थी।
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