Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    नाम बदलना आपका हक नहीं! इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दी अहम टिप्पणी; बताया क्यों यह मौलिक अधिकार नहीं

    Updated: Sat, 15 Feb 2025 09:17 PM (IST)

    इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अपने नाम में परिवर्तन करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। यह नियमों के अधीन है और केंद्र तथा राज्य सरकार की नीतियों के अनुसार संचालित होगा। कोर्ट ने एकल पीठ के उस फैसले को रद्द कर दिया है जिसमें नाम परिवर्तन को मौलिक अधिकार बताया गया था। जानिए पूरी खबर विस्तार से।

    Hero Image
    इलाहाबाद हाई कोर्ट - जागरण ग्राफिक्स ।

    विधि संवाददाता, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि अपने नाम में परिवर्तन करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है। यह नियमों के अधीन है, केंद्र तथा राज्य सरकार की नीतियों के अनुसार संचालित होगा।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    याची शाहनवाज का नाम बदल कर मो. समीर राव करने की मांग से जुड़े मामले में प्रदेश सरकार की विशेष अपील की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायमूर्ति अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र की खंडपीठ ने इस निर्णय के साथ ही एकल पीठ द्वारा नाम परिवर्तन को मौलिक अधिकार बताने वाला निर्णय रद कर दिया है।

    एकल पीठ ने 25 मई 2023 के आदेश में यूपी बोर्ड के क्षेत्रीय निदेशक के उस आदेश को रद कर दिया था जिसमें याची शाहनवाज का नाम परिवर्तित करने का प्रार्थनापत्र रद किया गया था। यूपी बोर्ड का कहना था कि नियमानुसार नाम परिवर्तन के लिए आवेदन तीन साल के भीतर करना चाहिए ।

    ‘अपनी पसंद का नाम रखना व्यक्ति का मौलिक अधिकार'

    एकल पीठ ने यूपी बोर्ड के इस नियम को मनमाना और असंवैधानिक करार देते हुए कहा था, ‘अपनी पसंद का नाम रखना व्यक्ति का अनुच्छेद 21 व 19 में मौलिक अधिकार है। यूपी बोर्ड के नियम इन मूल अधिकारों से सुसंगत नहीं है, इसलिए यह संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत है।’

    एकल पीठ ने याची शाहनवाज का नाम बदलकर मोहम्मद समीर राव करने और उसके हाईस्कूल व इंटरमीडिएट सहित अन्य सभी प्रमाणपत्रों ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, आधार कार्ड आदि पर नया नाम अंकित करने का निर्देश दिया था। प्रदेश सरकार ने इस आदेश को विशेष अपील दाखिल कर चुनौती दी।

    अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता का मत

    अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता रामानंद पांडेय का कहना था कि मौलिक अधिकार निर्बाध नहीं है। इन पर कुछ सुसंगत प्रतिबंध भी हैं। नाम परिवर्तन करना यूपी बोर्ड के 1921 एक्ट के अध्याय 12 द्वारा नियमित व संचालित होता है। नाम में परिवर्तन का आग्रह सात साल बाद स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    इसका प्रावधान रेगुलेशन 7 के चैप्टर 3 में है। एकल न्याय पीठ ने न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार की सीमा से बाहर जाकर आदेश दिया है। नाम में परिवर्तन संबंधी नियम बनाना सरकार का नीतिगत मामला है। ऐसे सभी मामले जिनमें केंद्र या राज्य विधायन के कानून को चुनौती दी गई हो, उस पर खंडपीठ में ही सुनवाई हो सकती है।

    इस संबंध में पहली अगस्त 2016 को मुख्य न्यायाधीश द्वारा कार्यालय आदेश पारित किया गया है। याची का पक्ष रखने के लिए नियुक्त न्यायमित्र श्रेयस श्रीवास्तव का कहना था कि एकल न्यायपीठ ने आदेश पारित कर कोई गलती नहीं की है। खंडपीठ ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि एकल न्याय पीठ ने रेगुलेशन 40 (सी)को मनमाना असंवैधानिक और मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाला घोषित किया है।

    राज्य और केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को उचित वैधानिक व प्रशासनिक कार्ययोजना तैयार करने का निर्देश दिया है। साथ ही यूपी बोर्ड के इस नियम को रीड डाउन (कानून की शक्ति को सीमित करना) यानी असंवैधानिक कर दिया है। वास्तव में एकल न्यायपीठ को ऐसा आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है। यह राज्य का नीतिगत मामला है। केंद्र और राज्य सरकार को ऐसे मामलों में नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है।