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    रानीगंज में गांधी जी ने चरखा चलाकर दिया था स्वदेशी का संदेश

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 10 Aug 2022 05:09 PM (IST)

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    रानीगंज में गांधी जी ने चरखा चलाकर दिया था स्वदेशी का संदेश

    रानीगंज में गांधी जी ने चरखा चलाकर दिया था स्वदेशी का संदेश

    संवाद सूत्र, रानीगंज : स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती देने के लिए महात्मा गांधी 1936 में प्रतापगढ़ आए थे। उन्होंने रानीगंज के बभनमई में चरखा केंद्र में स्वयं चरखा कातकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी अपनाने का संदेश दिया था। हालांकि अब उनकी यादों वाला चरखा केंद्र बदहाल हो चुका है। गांधी जयंती व स्वतंत्रता दिवस जैसे पर्व पर भी यहां कोई आयोजन नहीं होता है।

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    वर्ष 1917 में बाबा रामचंद्र किसान आंदोलन चला रहे थे। आंदोलन में शामिल होने के लिए गांधी जी पहली बार 29 नवंबर 1920 को प्रतापगढ़ आए और कंपनी बाग में किसानों की सभा को संबोधित किया। गांधी जी की सलाह पर 1936 में प्रतापगढ़-बादशाहपुर राजमार्ग पर रानीगंज के बभनमई में लोगों को रुकने के लिए डाक बंगला बनाया गया। फिर आचार्य जेपी कृपलानी के साले धीरेंद्र शर्मा की देख-रेख में डाक बंगले व गांधी आश्रम चरखा केंद्र का शुभारंभ किया गया। इसका संचालन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. श्याम नारायण उपाध्याय ने किया। राजमार्ग से कुछ दूर गांव में 36 कमरे का गांधी आश्रम चरखा केंद्र बना। श्याम नारायण, देवी प्रसाद तिवारी, झूरी शर्मा, गिरिजा रमण शुक्ल यहां लोगों को सूत कातने का प्रशिक्षण देते थे। 1938 में गांधी जी जब प्रतापगढ आए ते डाक बंगले में ठहरे। गांधी आश्रम में जाकर स्वयं चरखा चलाया। सूत कातकर लोगों को प्रेरणा दी कि वे स्वदेशी को अपनाएं।

    राष्ट्रपिता की याद से जुड़ा चरखा केंद्र अब खस्ताहालत में पहुंच गया है। एक समय वह था जब डाक बंगले में देश के कोने-कोने से लोग आकर रुकते थे और आंदोलन की रूपरेखा तैयार करते थे। आजादी के बाद यहां तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी भी आई थीं। उन्होंने इस स्थल के कायाकल्प का भरोसा दिलाया था। लोगों को इस स्थल की उपेक्षा का मलाल तो है, पर आशा भी है कि आजादी के अमृत महोत्सव में इसकी सुधि ली जाएगी। डाक बंगला भी अस्तित्व खो रहा है। श्याम नारायण उपाध्याय के प्रपौत्र विवेक उपाध्याय बताते हैं कि गांधी आश्रम की स्थापना का ही परिणाम था कि गांव में एक-दूसरे को भाई जी कह कर संबोधित किया जाता था। गांधी आश्रमों में यह परंपरा अब भी बनी है।