Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Diwali 2022: अपनों के नाम अनोखी दिवारी, ढोल बजाकर पूरी रात नृत्य; वर्षों से निभा रहे परंपरा

    Diwali 2022 लखीमपुर खीरी पीलीभीत जिले का माधोटांडा और उत्तराखंड के खटीमा का हिस्सा नेपाल सीमा से सटा हुआ है। शारदा नदी और जंगल होने के कारण इस क्षेत्र में थारू जनजाति के लोगों ने गांव बसा लिए।

    By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Sat, 22 Oct 2022 05:37 PM (IST)
    Hero Image
    Diwali 2022: फसल कटने पर रस्म पूरी करने की परंपरा

    उमेश शर्मा, पीलीभीतः उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में शारदा नदी के पार बसे थारू जनजाति के लोग हैं। वे दीपावली के पर्व पर अपने दिवंगतों को पुतले के रूप में प्रत्यक्ष मानकर पूजा करते हैं। दिवंगत और पुरखे जो व्यंजन पसंद करते थे, उन्हें पुतले के सामने रखा जाता है। पूरी रात ढोल बजाकर नाच-गाने के बाद तड़के पुतले को पानी में प्रवाहित कर दिया जाता है। जिले में शारदा नदी के पार नेपाल सीमा से सटे तीन गांवों के थारू जनजाति के करीब 1,200 लोग वर्षों से इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    फसल कटने पर रस्म पूरी करने की परंपरा

    लखीमपुर खीरी, पीलीभीत जिले का माधोटांडा और उत्तराखंड के खटीमा का हिस्सा नेपाल सीमा से सटा हुआ है। शारदा नदी और जंगल होने के कारण इस क्षेत्र में थारू जनजाति के लोगों ने गांव बसा लिए। माधोटांडा के गांव ढकिया ताल्लुक महाराजपुर के पूर्व प्रधान फिरुआ राना बताते हैं कि करीब 30 वर्ष पहले उनके पूर्वज खटीमा और लखीमपुर से लग्गा-बग्गा क्षेत्र के जंगल में आए गए थे। बाद में वन विभाग ने वहां से हटाकर ढकिया ताल्लुक महाराजपुर में ग्राम समाज की जगह दे दी। धीरे-धीरे राजपुर, सुंदरनगर और नगरिया में जनजाति की आबादी करीब 1,200 हो गई। दीपावली को उनकी जनजाति में दिवारी बोला जाता है।

    पर्व पर पुतले बनाने की परंपरा पर कहते हैं कि होली के बाद यदि किसी परिवार में देहांत हो जाता तो आर्थिक परेशानी के कारण अंतिम संस्कार के अलावा कोई अन्य रस्म पूरी नहीं कर पाते थे। इसके लिए धान की फसल कटने का इंतजार होता था। यह समय दीपावली के आसपास का होता है। बुजुर्ग बताते थे कि कृष्ण पक्ष में रोटी देने (भोजन का आमंत्रण) की परंपरा हो, इसलिए दीपावली से एक-दो दिन पहले इसे निभाया जाने लगा। जिन परिवारों में बुजुर्ग दिवंगत हुए, उनका पुतला बनाकर पूरी रात लोकगीत गाए जाते हैं। उन्हें याद किया जाता है। यदि रोटी देने की रस्म किसी युवा के देहांत पर निभाई जा रही तो दुख के गीत गाए जाते हैं। इसके बाद उनकी पसंद के व्यंजन पुतले के सामने रखकर आह्वान किया जाता कि इसे स्वीकार करें। तड़के तक यह क्रम चलता है, इसके बाद पुतले को नदी में प्रवाहित कर देते हैं। इसके पीछे जनजाति की नई पीढ़ी को संदेश दिया जाता कि दिवंगतों, पूर्वजों को भी पर्व में याद रखें। दीपावली की सुबह कुल देवता की पूजा, बलि के बाद रात को लक्ष्मी पूजन होता है।

    14 दीप जलाकर पूर्वजों को करते याद

    नेपाल के सीमावर्ती गांवों में करीब 40 हजार बंगाली समुदाय की आबादी है। वे अपने पूर्वजों की याद में दीपावली से एक दिन पहले 14 दीप जलाते हैं। बच्चों को उनके बारे में जानकारी दी जाती है। उस रात सार्वजनिक स्थान पर भजन-कीर्तन होता है, भंडारे किए जाते हैं। दीपावली वाले दिन मंदिरों में फल, सब्जी, फूल आदि चढ़ाकर काली मां से प्रकृति के संरक्षण का आशीर्वाद मांगा जाता है। रात में लक्ष्मी व काली मां को पूजन होता है। नौजल्हा गांव में रहने वाली काजल मंडल बताती हैं कि परंपरा ही हमारी पहचान है। दीप जलाकर बुजुर्गों को याद करते समय बच्चों को उनके बारे में बताते हैं, ताकि आदर बना रहे। प्रदीप सरकार बोले, दीपावली पर अब आतिशबाजी भी होने लगी। पहले सभी परिवार सिर्फ रात में पूजन करते थे।