पहले खुद फिर दूसरों को दे सुधार की शिक्षा
शोभाराम बाल जीवन से ही शिक्षक बनने की लालसा रखते थे। शिक्षक बनकर उनका लक्ष्य एक सुखमय व आनंदमय जीवन
शोभाराम बाल जीवन से ही शिक्षक बनने की लालसा रखते थे। शिक्षक बनकर उनका लक्ष्य एक सुखमय व आनंदमय जीवन जीना नहीं था बल्कि वह शिक्षक बनकर स्वयं को संस्कारित रखकर बच्चों को भी संस्कारवान बनाना चाहते थे। अपने जीवन लक्ष्य को लेकर उन्होंने अपना अध्यन जारी रखा तथा अपने विद्यार्थी जीवन को भी दया, धर्म, करूणा, परोपकार, बड़ों का आदर, नैतिक गुणों से जोड़े रखा। चरित्र जीवन की अमूल्य धरोहर है इस सूक्ति को पढ़कर स्वयं जीवन में चरित्रवान बने रहने का प्रयास किया।
एक बार शोभाराम ने किसी निबंध में एक सूक्ति वाक्य का पढ़ा कि स्वयं को जानो और जीवन का प्रत्येक सुधार स्वयं ही करो। कथन को पढ़कर उन्होंने उसे अपने मानस पटल पर उतार लिया और जीवन भर उसको दोहराने का प्रयास भी किया। आगे चल कर उन्होंने अपनी इच्छानुसार विद्या अध्यन किया। बीए करने के बाद बीएड फिर अध्यापक बनने का इरादा बना लिया। उन्होंने अपने अध्यापन जीवन का प्रारंभ एक आचार्य जीवन से किया। आचार्य बनकर भले ही उन्हें अर्थ की प्राप्ति कम होती थी लेकिन वह अपने जीवन में जिस इच्छा को लेकर जीवन पथ पर चल रहे थे उसे पूरा करने का पूर्ण अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। आचार्य बनकर उन्होंने स्वयं को तो संस्कारित रखा ही साथ में अपने शिष्यों को भी समय समय पर संस्कारित बनाने का पूरा पूरा प्रयास किया। उनकी जीवन की एक घटना इस प्रकार थी कि एक बार वह एक लम्बे अवकाश में आए हुए थे अपने परिवार में भाई बहनों और माता पिता के साथ छुट्टियां बिताकर पुन: अपने विद्यालय जाने लगे उनका विद्यालय उनके गांव से लगभग 35 किलोमीटर दूर था यह रात्रि की अंतिम बस थी जो उनके निकट के कस्बे से उनके विद्यालय स्थित कस्बे को जाती थी। शोभाराम रात्रि की इसी बस में बैठकर अपने गंतव्य की ओर जा रहे थे। उन्हें एक सीट बैठने को मिल गई वह उस पर बैठकर अपने ¨चतन में खोए हुए थे वह अपने विचारों, रास्ते चलते, सफर करते, संस्कारिक पक्ष को खोजते रहते थे। जहां कही उन्हें अवसर मिलता वह अवश्य ही अपना संस्कार पक्ष रख देते। इस बस में भी वह कुछ ऐसा ही ¨चतन में खोए हुए थे। बस में शोभाराम दो सीटों वाली सीट पर बैठे थे उनकी दायीं ओर दूसरी तरफ की सीट तीन सीटों वाली सीट पर एक महिला अपने दो बच्चों के साथ बैठी थी। महिला की पोशाक बाहरी हाव भाव यह बता रहे थे कि महिला अवश्य ही किसी शिक्षक व धनी परिवार से है। बच्चों के साथ उसका पूरी सीट को घेर कर बैठना शोभाराम को बहुत अच्छा नहीं लग रहा थ। वह सोच रहे थे कि यदि अन्य को असहाय सवारी बस पर चढ़ेगी तो वह उससे बच्चों को गोद में लेकर उस व्यक्ति को सीट देने के लिए अवश्य कहेगे ताकि अन्य व्यक्ति को भी आराम मिल सके और यात्रा शुलभ हो सके। उस बस में उनके अन्य बहुत से परिचित लोग थे। संयोग की बात थी कि बस लगभग 15 किलोमीटर ही चल पाई कि रूक गई और उसमें एक पुरुष एक महिला जिसकी गोद में एक बच्चा था चढ़ी। बस के अंदर बच्चे को गोद में लिए देखकर शोभाराम को संस्कार पक्ष की बात नित रोज की भांति सूझी उन्होंने पास की सीट पर बैठी उस धनी महिला के एक बच्चे से कहा कि बेटा आओ मेरी गोद में बैठ जाओ और यह सीट इनके लिए दे दो। शिक्षक की बात सुनकर बच्चा अपनी जगह से उठा लेकिन मां ने उसे हाथ पकड़कर झड़कर कर बैठा दिया आओ बोली मेरा बच्चा नहीं उठेगा मैने तीन सवारियों के पैसे दिए हैं आपको इनका बहुत ख्याल है तो स्वयं ही सीट क्यों नहीं दे देते। शोभाराम को अपनी भूल का बोध हो गया कि जो काम हम दूसरों से करना चाहते हैं वह पहले स्वयं ही करें। उन्होंने अपने महत्व को समझा और अपनी सीट से उठते हुए उस महिला जिसकी गोद में बच्चा था सीट पर बैठने को कहा और अपनी भूल के लिए उस धनी महिला से क्षमा भी मांगी। शिक्षक के ऐसा करने पर बस के अंदर कई आवाजें आने लगीं आइए आचार्य जी आप इधर बैठ जाइए शोभाराम के एक सीट छोड़ने से बस के अंदर उनके लिए कई सीटें खाली कर दी गई। वास्तव में शोभाराम को उस क्षण अपना महत्व बोध हो गया और बहुत समय पहले पढ़ी सूक्ति को दोहराया स्वयं को जानों जीवन का प्रत्येक सुधार स्वयं करो।
चुनौतियों से लड़ने को हो तैयार
लक्ष्य मंजिल तक पहुंचने की वह सीढी है जिस पर चढ़कर सफलता हासिल की जाती है। लक्ष्य के बिना जीवन निरर्थक हो जाता है। सच्चे मन, लगन, निष्ठा, आत्मविश्वास से किए गए कार्य में सफलता स्वयं ही कदमों को चूमती है। इस लिए प्रत्येक व्यक्ति को लक्ष्य अवश्य निर्धारित कर जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। सर्वे भवंतु सुखिन: सभी सुख यहां लेकिन निश्चित ही सद विद्या द्वारा, विद्या कैसी जो मनुष्य को श्रेष्ठ आचरण करने की ओर ले जाए, मानव कल्याण के लिए प्रेरित कर सके, वैज्ञानिक ²ष्टकोण का सूत्रपात हो, नव सृजनों, विश्व बंधुत्व कुटुम्बकम् का भाव हो, कर्मशीलता की हो, सम्प्रेषित करें। भावी पीढी का मार्ग दर्शन कर सके। किसी भी देश अथवा क्षेत्र की महानता उसका भौगोलिक परिवेश नहीं वरन वहां के लोग हैं। हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया यद्यपि कि ऐसा नहीं कि अन्य देशों में महान पुरूषों का अभ्युदय नहीं था लेकिन यदि समीक्षा के तौर पर देखा जाए तो हम भारतवासी स्वयं पर गर्व कर सकते हैं। विज्ञान, गणित, ज्योतिष शास्त्र में हमारी प्राचीन समय से ही पैठ थी विश्व के अद्वितीय विश्व विद्यालय तक्षशिला व नालन्दा हमारे प्राचीन गौरव को बढ़ाते हैं। विदेशी इतिहासकारों में भी हमारी संस्कृति, सदाचरण एवं दानशीलता पर अपनी कलम चलाई है। विद्यालय एक संस्कार शाला है जहां हम शिक्षक बच्चों को विभिन्न विषयों की नवीनतम
जानकारी प्रदान करते हैं साथ ही हम उसको शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक रूप से मजबूत करने का प्रयास करते हैं। परिवर्तन समय का स्वभाव है 15, 20 वर्षों में ही अमूल चूल परिवर्तन से सामना करना होता है, सभी क्षेत्रों अत: शिक्षा क्षेत्र में भी नवाचार आवश्यक हो जाता है। आज कल के बच्चे निश्चय ही बड़े प्रतिभावान हैं तकनीकि ज्ञान तो लगता है कि जैसे जन्मजात हो। आज के वैज्ञानिक युग की शायद कमी को पूरा करते हैं। आवश्यक्ता है हमें अपने को उनके अनुरूप तैयार करने के लिए ताकि हम उनकों कुशल निर्देशन प्रदान कर सकें।
गुरू महिमा से साहित्य भरे पड़े हैं कौटिल्य, समर्थ गुरू, रामदास, विश्वामित्र, संदीपन, रामकृष्ण परमहंस न जाने कितने गुरूओं ने सामर्थ्यवान
शिष्य गढ़े हैं। सभी महान पुरुषों ने अपने उत्थान में माता पिता के साथ अपने शिक्षकों का स्मरण किया है। वर्तमान युग चुनौतियों से परिपूर्ण है
चुनौतियां भी ऐसी कि शायद पहले ऐसी कभी नहीं रहीं। आवश्यक्ता है अपनी अगली पीढी को विशेष सावधानी से उन चुनौतियों को लड़ने
एवं विजय पाने हेतु तैयार करने की इसके लिए हमें अपने प्रणपण से लगना होगा और तब हम दे सकें के कल का उज्जवल श्रेष्ठ उन्नतिशील भारत जिस पर हम सभी देशवासी गर्व कर सकें।
डा. रविशरण सिहं चौहान
प्रधानाचार्य सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज बीसलपुर
फोटो18बीएसएलपी5
समाज व देश की दिशा व दशा का उत्तरदायित्व शिक्षक से संबंधित है। कुंमकार, मूर्तिकार व चित्रकार अपने विवेक व अद्वितीय कल्पना से कूट कर जिस प्रकार सुंदर प्रतियों को जन्म देता है शिक्षक भी उसी सृजनात्मक अभिव्यक्ति व शक्ति से अपने बच्चों को भावनी दिशा प्रदान करता है। जैसी चुनौतियों वैसा प्रशिक्षण इसी लिए तो वह परमात्मातुल्य बन जाता है। संसार को बारुद के ढेर पर बैठ कर शांति का संदेश नहीं दिया जा सकता है उसके लिए हमें बुद्ध, महावीर और गांधी का संदेश देना पड़ेगा तथा वैसा ही बनना पड़ेगा अत: आज की आवश्यकता उपदेश देने की न होकर वैसा आचरण करने की है।
राकेश कुमार सिहं, शिक्षक
प्रदेश रत्न राज्यपाल द्वारा सम्मानित
फोटो18बीएसएलपी6
कुशलता के साथ कर्म को करना ही योग है परंतु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं लगाया जाना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति बहुत की कुशलता के साथ किसी बुरे कार्य को कर रहा है तो उसे सार्थक मान लिया जाएगा। अर्थात छात्र जीवन से व्यक्ति को अच्छे कार्यों की ओर प्रेरित होना चाहिए। यदि कोई छात्र खेलों में आगे बढ़कर अपने देश का नाम शिखर पर पहुंचाना चाहता है तो उसे ईमानदारी से कठिन परिश्रम करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। किसी भी प्रकार धोखाधड़ी, ड्रग्स या डो¨पग का सहारा लेते हुए आगे बढ़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसके लिए छात्रों को अपने संस्कारों को ध्यान रखते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
रमेशपाल सिहं
शिक्षक
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