बिसरख के सरजीत भाटी ने लहराया था लालकिले पर झंडा
जागरण संवाददाता ग्रेटर नोएडा आजादी की जंग में अनेक क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें जगह नहीं मिली।

जागरण संवाददाता, ग्रेटर नोएडा : आजादी की जंग में अनेक क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें जगह नहीं मिली। वह गुमनामी के अंधेरे में खोये हुए हैं। ऐसे ही एक स्वतंत्रता सेनानी ग्रेटर नोएडा वेस्ट के बिसरख गांव के रहने वाले सरजीत भाटी थे। 19 दिसंबर 1919 को जन्मे सरजीत में देश सेवा का ऐसा जज्बा था कि मात्र 18 वर्ष की आयु में घर-परिवार छोड़कर पंजाब रेजिमेंट की यूनिट 1/8 में भर्ती हो गए। उस समय अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन की अलख चरम पर थी। द्वितीय विश्व युद्ध भी चल रहा था। उनकी यूनिट को अंग्रेज सेना की तरफ से लड़ने के लिए म्यांमार (वर्मा) भेजा गया। जहां जर्मन सेना ने उन्हें बंधक बना लिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आग्रह पर भारतीय सैनिकों को रिहा कर दिया गया। अधिकांश सैनिक आजाद हिद फौज में भर्ती हो गए। सरजीत भाटी भी इनमें शामिल थे। उस समय आजाद हिद फौज के ट्रेनिग कमांडर कर्नल मानसिंह थे। वह सरजीत की देशभक्ति की भावना से इतने खुश हुए कि उन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट का रैंक देते हुए ट्रेनिग कैंप का उप कमांडर बना दिया। कुछ समय बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के दिल्ली चलो के नारे से प्रेरित होकर लालकिले पर झंडा फहराने का प्रण लिया। वेश बदलकर पहले उन्होंने लालकिले के आसपास अंग्रेज सेना की गतिविधियों का जायजा लिया। उसके बाद लालकिले पर झंडा फहराने की योजना बनाई। योजना को अंजाम देने के लिए वह पीठ पर झंडा बांधकर रस्सियों के सहारे लालकिले की बुर्ज पर पहुंचे और वहां आजाद हिद फौज का झंडा फहराया। यह घटना 1943 की है। यह बात उन्होंने घर आकर अपने माता-पिता, पत्नी रगबीरो व भाइयों को बताई थी। बिसरख गांव के मटरू सिंह के चार बेटे थे। प्रह्लाद, मथन सिंह, अतरा सिंह व सरजीत। चारों भाइयों में सरजीत सबसे छोटे थे। घर पर कुछ समय बिता कर फिर से वे देश सेवा के लिए निकल गए। पंजाब के होशियारपुर में एक गुर्जर परिवार सरदार सिंह के यहां बिना नाम बताए रहने लगे। वहीं से आजाद हिद फौज की गतिविधियों को संचालित करते रहे। उनकी गतिविधियों की जानकारी अंग्रेज सेना को हो गई। उन्हें पकड़कर काले पानी की सजा सुनाई गई। देश आजाद होने के बाद वह काले पानी की सजा से मुक्त होकर 1948 में घर आए, लेकिन तब तक माता-पिता और पत्नी की मौत हो चुकी थी। काले पानी की सजा के कारण सरजीत के फेफड़े खराब हो गए थे। 1950 में उनकी 31 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।
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पौत्र ने ढूंढा सर्विस रिकार्ड
सरजीत के भाई मंथन सिंह के पौत्र आमोद भाटी ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकालकर स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने का बीड़ा उठाया। उन्हें दादा-दादी सरजीत के बारे में रोचक जानकारी देते थे, लेकिन उनका कोई सर्विस रिकार्ड नहीं था। आमोद भाटी ने सबसे पहले गांव के बुजुर्ग देशराज से कुछ रोचक जानकारी हासिल की। पता चला कि गांव में मोहल्लों के नाम सुभाष मोहल्ला, चंद्रशेखर व नेहरू मोहल्ला सरजीत ने ही रखे थे। यह भी पता चला कि हरियाणा के रेवाड़ी के भगवान सिंह फोगाट उनके बारे में जानकारी रखते हैं। रेवाड़ी पहुंचकर जानकारी ली। हापुड़ के पूठा के रहने वाले देशराज सिंह ने भी आजाद हिद फौज के नायक सुभाष चंद्र बोस पर पीएचडी की है। उनसे भी जानकारी जुटाई गई। उनकी एक पुस्तक में आजाद हिद फौज के गुमनाम सैनिकों के बारे में जानकारी है। पेज नंबर 538 पर सरजीत के बारे में जानकारी मिली। उसी से पंजाब रेजिमेंट में भर्ती होने की जानकारी हासिल की। वर्तमान में पंजाब रेजिमेंट की यूनिट रामगढ़ झारखंड में हैं। वहां पहुंचकर पता चला कि पंजाब रेजिमेंट की यूनिट 1/8 का समायोजन राजपूत रेजिमेंट फतेहगढ़ में हो चुका है। वहां से सरजीत के बारे में समुचित जानकारी हासिल की गई। आर्मी नंबर 15779 सरजीत पुत्र मटरू, पत्नी रगबीरो व भर्ती होने की तिथि 8 दिसंबर 1938 व सेवानिवृत्त होने की तिथि 11 जून 1946 अंकित है। आमोद का कहना है कि उनके पास बहुत सारे गुमनाम सेनानियों की जानकारी है।
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