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    जीवन का पाठ पढ़ाते महादेव

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    Updated: Tue, 21 Feb 2017 11:51 AM (IST)

    शिव अनादि हैं। अनंत हैं। अपने हृदय चक्र में शिवलिंग को स्थापित कर मन ही मन उनकी पूजा की जा सकती है।

    जीवन का पाठ पढ़ाते महादेव

    शिव अनादि हैं। अनंत हैं। अपने हृदय चक्र में शिवलिंग को स्थापित कर मन ही मन उनकी पूजा की जा सकती है। व्यक्ति-समाज की सेवा भी शिव पूजा के समान है। महाशिवरात्रि (24 फरवरी)पर शिव की महत्ता पर प्रकाश डाल रहे हैं कुछ जाने-माने आध्यात्मिक गुरु ..

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    सर्वश्रेष्ठ है मानस पूजा

    स्वामी अवधूत शिवानंद

    माना जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन शिव ने अपना निराकार स्वरूप दिखाया था। ज्योतिर्लिग के रूप में वे प्रकट हुए। महाशिवरात्रि के दिन उनकी चार प्रहर पूजा की जाती है। भक्तगण जल, दूध, दही, शहद, घी, पंचामृत, बिल्व पत्र आदि से उनकी पूजा-अर्चना करते हैं, लेकिन सर्वश्रेष्ठ पूजा मानस पूजा है। आदि शंकराचार्य शिव के अनन्य भक्त थे। उन्होंने मानसिक पूजा को ही उत्तम शिव पूजा बताया।

    मन ही मन शिव को अपने हृदय चक्र में स्थापित कर उनकी आराधना करना ही मानस पूजा है। सबसे पहले यह अनुभव करना है कि आपके भीतर शिवलिंग स्थापित हो गए हैं।

    मन ही मन रत्‍‌नों से जड़ित सिंहासन पर भगवान को बिठाएं और नाना प्रकार के द्रव्यों से उनका अभिषेक करें। मन से पूजा करने पर ईश्वर से जुड़ाव स्वत: हो जाता है। कर्मकांड वाली पूजा तो एक तरह से व्यापार है। इसलिए शिव ध्यान करें। शिव योग करें। आंखें बंदकर उनकी सुंदर छवि अपने हृदय चक्र में अंकित कर उपासना करें। कठिन मंत्र बोलने की बजाय अंदर के भाव जब तक ईश्वर के साथ नहीं जुड़ेंगे, तब तक उनका सानिध्य नहीं मिल सकता है। चेतना जाग्रत होते ही आप शिव से जुड़ जाएंगे। यह कई गुणा शक्तिशाली है। शिव योग एक भावनात्मक विधि है।

    'नीलकंठ' में निहित जीवन संदेश

    दीदी मां साध्वी ऋ तंभरा

    देवाधिदेव महादेव ने सृष्टि के कल्याण के लिए अमृत बांटा और स्वयं जहर पी लिया। 'भोले भंडारी' के नयनाभिराम रूप में वे सदैव हिमाच्छादित कैलाश पर ध्यानावस्था में विराजते हैं। जब आवश्यकता पड़ी, तो प्राणी कल्याण में सन्नद्ध हो गए। वे औघड़दानी कहलाते हैं। भक्तों के लिए सर्वसुलभ। उनकी कोई विशेष पूजा पद्धति नहीं है। जिसने भी विशुद्ध भक्ति भाव से भज लिया उसी के हो गए। 'समुद्र मंथन' के समय कई अद्भुत वस्तुएं निकलीं। जब हलाहल निकला, तो कौन उसको छूने की भी आकाक्षा रखता? 'अरे, यह विष अगर सृष्टि में फैल गया, तो उसका समूल नाश हो जाएगा! यह भय संपूर्ण जगत में व्याप्त हो उठा। महादेव ने बिना एक क्षण गंवाए विष कुंभ को उठाकर पी गए। विष को अपने कंठ में ही रोक लिया। वह उनके शरीर को दग्ध नहीं कर सका, क्योकि वे महायोगी हैं। वे जानते हैं कि कैसे किसको कहां रोक लेना है। सारी सृष्टि कृतज्ञ भाव से 'भगवान नीलकंठ की जय' का उद्घोष कर उठी।

    महादेव का 'नीलकंठ' हो जाना, समूची मानवता के लिए एक सीख है। हम विचार करें। हर दिन हम दूसरे लोगों के अपने प्रति कुविचारों का न जाने कितना विष अपने भीतर समा लेते हैं। किसी ने हमारे बारे में कुछ कहा नहीं कि बस वह हमारे कंठ को पार करता हुआ हमारे शरीर के पोर-पोर में समा जाता है। हमारा मन जल उठता है। क्रोधाग्नि हमारे शरीर को नष्ट कर देती है। हम आराधना तो 'नीलकंठ' की करते हैं, लेकिन अभी तक हमें उनके जैसा होना नहीं आया। यदि कोई आपके बारे में अनर्गल प्रलाप कर रहा है, तो क्यों उसे अपने हृदय तक जाने देते हैं? रोक लें उसे कंठ में। इस बात को गांठ बांध लीजिए कि शब्द ब्रह्म है, जो कभी नष्ट नहीं होता। वह कहने वाले पर ही प्रभाव डालता है। इसलिए यदि कोई आपको अपशब्द कह रहा है, तो यह पक्का मान लीजिए कि इससे आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, बल्कि कहने वाले को ही दुष्प्रभावित करेगा। अपने विरुद्ध हो रही किसी भी बुराई को समाधिस्थ् भाव से अपने कानों से आगे मत बढ़ने दीजिए। यही है महादेव की सच्ची आराधना। तो इस महाशिवरात्रि अपने आराध्य के समक्ष प्रण कीजिए..नीलकंठ बनने का।

    अज्ञानता को दूर करती शिवरात्रि

    अम्मा अमृतानंदमयी

    च्यादातर लोग रात में पेट भर कर भोजन करते हैं और सुख की नींद सोते हैं। केवल कुछ लोग जागे रहते हैं और ईश्वर के स्मरण में डूबे रहते हैं। सच कहा जाए, तो ऐसे लोगों के लिए हर रात्रि शिवरात्रि होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अकेले ईश्वर ही सभी शुभ के मूल में हैं। चूंकि केवल कुछ लोग ही विवेक और वैराग्य के स्तर तक पहुंच पाए हैं, वैसे में शिवरात्रि का उत्सव शेष मानवजाति के लिए व्रत रखने तथा रात में जाग्रत रहने का एक अवसर है-कम से कम एक रात्रि के लिए। हम दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि यह हमारे लिए एक वार्षिक अवसर है जब हम ईश्वर के लिए रात भर जागकर उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं। जो वर्ष के 365 दिन जागते रहते हैं और अपने बच्चों की निगरानी करते रहते हैं।

    शिवरात्रि हमारी अज्ञानता को दूर करती है। अंधकार कोई वस्तु नहीं है, जिसे हाथ से हटाया जा सके। जब प्रकाश आता है तब अंधेरा अपने-आप गायब हो जाता है। इसी तरह जब हमारे अंदर आध्यात्मिक जागरूकता का प्रकाश चमकता है तब अज्ञानता का अंधकार अपने-आप गायब हो जाता है। सूर्य वहा हमेशा होता है। पृथ्वी के घूर्णन के कारण हम रात-दिन का अनुभव कर पाते हैं। इसी तरह से देवत्व हमारा स्वभाव है। देवत्व की रोशनी हमेशा हमारे साथ होती है। अगर हम धूप में पानी से भरा 100 बर्तन रखते हैं, तो सूरज का प्रतिबिंब हर बर्तन में चमकेगा। ज्ञान के साथ एकता की दृष्टि भी आती है। हम उम्मीद करते हैं कि दोनों आंखों को बंद करने के बाद एक तीसरी आंख खुल जाएगी। वास्तव में, तीसरी आख एकता की दृष्टि का प्रतीक है, जो यहा तक कि दोनों आंखें खुली रहने पर भी आती है। जिन लोगों को सच का एहसास हो गया है, उनके लिए अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। 'रात' का कोई अस्तित्व नहीं है। एकता के अलावा और कोई दूसरी चीज नहीं है। जो व्यक्ति इन सब बातों को समझ लेगा वह हमेशा समाज कल्याण में लगा रहेगा।

    हम तर्क और बुद्धि के माध्यम से कुछ हद तक मन को नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन यह केवल प्यार की शक्ति है, जिसमें मन पूरी तरह से समर्पण के लिए तैयार रहता है। जब हमारे दिल में

    ईश्वर के प्रति प्यार जागता है, तो भौतिकवादी विचार कम होना शुरू हो जाते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर हम इस दिव्य प्रेम को जगा सकते हैं।

    पूरी रात जागते रहने का मतलब यह नहीं है कि सिर्फ आखें खुली रहनी चाहिए। इसका मतलब है कि हमें अपने हर विचार, शब्द और काम के प्रति जाग्रत, सतर्क और जागरूक रहना चाहिए। जागरूकता के साथ ही अज्ञानता स्वत: दूर हो जाती है।

    शिव तत्व का जागरण

    श्री श्री रवि शकर

    शिवरात्रि का शुभ काल शिव तत्व को जगाने के लिए है, जो चेतना का सबसे सुंदर पहलू है।

    भगवान शिव वह शाश्वत तत्व (सिद्धात) हैं, जो इस सृष्टि के सार हैं। इस सिद्धात से ही सब कुछ उपजा है। इसमें ही सब कुछ विलीन हो जाता है।

    नटराज रूप में शिव का चित्रण। यह एक ऐसी अभिव्यक्ति है, जिसमें अस्तित्व के गहरे अर्थ को समग्र रूप से समाविष्ट किया गया है। नटराज भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच परस्पर आदान-प्रदान के प्रतीक हैं। नटराज की 108 भागिमाओं में आनंद ताडव परमानंद का नृत्य सबसे लोकप्रिय और सुंदर माना जाता है। शिव ताडव का इतना सुंदर, मनमोहक,और सुशोभित निरूपण अद्वितीय है।

    गहरे ध्यान और भौतिक जगत के प्रति वैराग्य के माध्यम से जब हम आलौकिक संसार तक पहुंच पाते हैं तब हम आनंद ताडव का अनुभव करने में सक्षम हो जाते हैं। अस्तित्व के कई आयाम हैं, जिसने इस सूक्ष्म संसार में प्रवेश प्राप्त कर लिया है। शिव ताडव निरंतर और सतत रूप से हो रहा है। शरीर, मन, बुद्धि और अहंकार तंत्र के पार जाने के बाद ही ब्रह्माडीय लय के इस आनंद ताडव का अनुभव किया जा सकता है।

    शिव अनादि हैं। शिव अनंत हैं। उन्हें किसी विशेष देश और काल में निरूपित करना उस शाश्वत सिद्धात को सीमित करना है, जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है।

    नृत्य करते शिव के ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू अनंत के आकार में है। यह ध्वनि और आकाश का प्रतीक है। यह ब्रह्माड के विस्तार और विलीन होने की प्रकृति का प्रतीक है। अपरिमित ध्वनि के माध्यम से असीम अनंत की परिकल्पना हम कर सकते हैं।

    नटराज के ऊपरी बाएं हाथ में अग्नि ब्रह्माड की मौलिक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। आनंद ऊर्जा को पुष्ट करता है, जबकि भोग उसे क्षीण करता है। निचले दाहिने हाथ अभय मुद्रा में है, जो सुरक्षा और सुव्यवस्था केआश्वासन का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा हाथ पैर की ओर इशारा करते हुए अनंत संभावनाओं का संकेत है।

    पैरों के नीचे अपस्मार राक्षस है, जो अज्ञानता का प्रतीक है। यह उस अनियंत्रण की अवस्था को दर्शाता है, जिसमें शरीर और जीवनशक्ति पर कोई काबू नहीं रहता है।

    जब मानव चेतना अज्ञानता के बंधनों से खुद को मुक्त करने में सक्षम हो जाता है और शरीर-मनतंत्र पर नियंत्रण हासिल कर पाता है तब जीवन में परमानंद का नृत्य प्रारंभ होने लगता है।

    शिवरात्रि का समय विशिष्ट है, जिसमें सासारिक बंधनों से ऊपर उठकर अनंत,भोले और आनंदपूर्ण शिवतत्व की सर्वोच्च महिमा को आत्मसात किया जा सकता है। स्वयं में शिवतत्व को पाना ही वास्तविक शिवरात्रि उत्सव है।

    शिव पावर्ती का महामिलन है महाशिवरात्रि

    शिव विवाह पर विशेष

    शिव विवाह के दिन काशी, जम्मू और देवघर आदि में भक्तगण शिवमय हो जाते हैं। एक विशेष रिपोर्ट

    भगवान आशुतोष को काशी सर्वाधिक प्रिय है। शिव की नगरी में महाशिवरात्रि का पर्व विशेष महत्व रखता है।

    महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती महामिलन के साथ ही द्वादश ज्योतिर्लिगों के प्राकट्य का दिन भी माना जाता है, लेकिन काशी के लोग इसे भगवान शिव के विवाहोत्सव के रूप में ही मनाते हैं।

    शिव विवाह में लोग इस मनोभाव से सम्मिलित होते हैं जैसे यह उत्सव उनके अपने घर का हो। काशी के अधिष्ठाता के साथ यह उत्सव जुड़ा होने के कारण यहा के नागरिकों के लिए इस पर्व से बड़ा दूसरा कोई पर्व नहीं है। सभी ठंडई व भंग की तरंग में मगन होकर झूमते-नाचते नजर आते हैं। महाशिवरात्रि पर काशी विश्वनाथ दरबार सहित नगर के सभी शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन के लिए श्रद्धालुओं का रेला उमड़ पड़ता है। मंदिरों के इर्द-गिर्द शिवभक्तों का मेला रहता है। चारों ओर हर-हर महादेव व ओम नम: शिवाय की अनुगूंज रहती है। 'मेला' शब्द का अर्थ ही है मिलना और बनारस के लोगों में एक दूसरे से मिलने की उत्कंठा हमेशा प्रबल रही है। बनारस अपने आप में कभी सीमित नहीं रह सकता इसलिए दूसरे नगरों की तुलना में यहा मेले, त्योहारों, पर्वो व उत्सवों का महत्व अधिक रहता है।

    अक्खड़पन और फक्कड़पन यहा के जनजीवन का रस है। किसी ने लिखा है-

    चना चबैना, गंग जल

    जो पुरवे करतार।।

    काशी कबहुं न छोड़िए

    विश्वनाथ दरबार।।

    पुराणों के अनुसार अपने विवाह के पश्चात भगवान शिव अपने गणों, नंदी तथा माता पार्वती के साथ इसी दिव्य पुरी काशी में आए और निवास किया इसीलिए शिव प्रिय काशी में महाशिवरात्रि का विशेष महत्व है।

    बाबा बैद्यनाथ की चार प्रहर पूजा

    द्वादश ज्योर्ति¨लग में एक कामना ¨लग बाबा बैद्यनाथ मंदिर झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी देवघर में अवस्थित है। अति प्राचीन मंदिर की परंपरा आज भी अनवरत जारी है। यह शिव व शक्ति का मिलन स्थल है, पुराणों के अनुसार यहां माता का हृदय गिरा था इसलिए यह हृदयपीठ कहलाता है।

    महाशिवरात्रि के अवसर पर बाबा बैद्यनाथ की चार प्रहर की पूजा होती है। रात्रि प्रहर की पूजा में शिव¨लग पर ¨सदूर अर्पित होता है। भगवान शंकर व माता पार्वती की शादी का रस्म पुरोहित पूरा कराते हैं। मंदिर की परंपरा के अनुसार महाशिवरात्रि की रात बाबा का श्रृंगार नहीं होता है। रात दस बजे से दो बजे तक महापूजा की जाती है। इसके बाद सुबह छह बजे तक आम भक्तों के लिए पट खोल दिया जाता है। इसके बाद मंदिर का पट बंद हो जाता है, जो नौ बजे खुलता है। सामान्य दिनों की तरह भक्त पूजा अर्चना करते हैं। संभवत: देवघर स्थित द्वादश ज्योर्ति¨लग एकमात्र मंदिर है जहां शिव बरात आयोजन समिति की ओर से लगातार 24 साल से शिव बरात मे आकर्षक झांकी निकाली जाती है। बरात में एक लाख से अधिक श्रद्धालु शरीक होते हैं।

    शिवरात्रि के दिन लगभग एक से डेढ़ लाख तीर्थयात्री यहां आते हैं।

    बेटियों का पर्व है शिवरात्रि

    पर्वत पुत्री हैं पार्वती और महादेव हैं जम्मू-कश्मीर में दामाद। अलग-अलग समुदायों में यहा शिवरात्रि पूजन की तैयारियों भले ही अलग हों, पर शिव-पार्वती के प्रति आस्था सभी की एक सी है। बर्फीला मौसम समाप्त होने के साथ ही घरों में भगवान शिव के आवभगत की तैयारिया होने लगती हैं। जम्मू में शालामार स्थित श्री रणवीरेश्वर मंदिर से शिवरात्रि से एक दिन पूर्व भव्य शिव बारात निकाली जाती है। इस बारात में भक्त भूत, प्रेत की तरह सज धज कर तैयार होते हैं और शिव-पार्वती के ब्याह का गान करते हैं। मानतलाई को माता पार्वती का मायका माना जाता है। जहा आज भी पार्वती का ताल और मंदिर मौजूद है। वहीं कश्मीरी समुदाय में भगवान शिव की वटुक के रूप में पूजा की जाती है। पीतल के इन वटुकों में अखरोट भरकर पानी में भिगोए जाते हैं। यही है शिवरात्रि का प्रसाद। कश्मीरी समुदाय में आज भी बेटिया शिवरात्रि से तीन दिन पहले अपने मायके सिर धोने पहुंचती हैं और लौटते हुए उन्हें नमक, दही, रुपये और सुहाग चिन्ह अटहोरू दिए जाते हैं। यह पर्व मनुष्यों को प्रकृति से और प्रत्येक प्राणी को एक-दूसरे से जोड़ता है। बर्फीले मौसम में जहा महिलाएं दिन रात काम में मसरूफ रहती होंगी, उनके लिए मायके आकर अपने बालों को धोने का मौका मिलना भी जैसे एक शगुन हो जाता है। निर्वासन में घर भले ही छूट गए हो पर परंपराएं नहीं छूटी। शिवरात्रि से पहले आने वाली अष्टमी, जिसे हुराअठम कहा जाता है, को कश्मीरी समुदाय के लोग मिलकर अलग-अलग जगहों पर हवन का आयोजन करते हैं और समुदाय की महिलाओं को यही नमक, अटहोरू और रुपये शगुन में देते हैं।

    वाराणसी से रवींद्र प्रकाश त्रिपाठी, देवघर से आरसी सिन्हा व जम्मू से योगिता यादव

    मानवता का संदेश देने वाले संत

    सूफी दर्शन

    कानन झींगन

    हाल में पाकिस्तान में प्रेम और मानवता का संदेश देने वाले 'लाल शाहबाज़ कलंदर' की दरगाह आतंकियों का निशाना बन गई। विडंबना यह है कि इस्लाम की ही सूफी धारा के संतों को ये कट्टर लोग अपना दुश्मन मानते हैं। सूफी शब्द पवित्रता का द्योतक है। ऊन के कपड़े पहनने वाले इन दरवेश संतों की जीवन शैली 'तसव्वुफ़' है अर्थात संसार के प्रति वैराग्य भाव और इष्ट के प्रति चरम आसक्ति। लाल शाहबाज़ कलंदर ईरान के 'मारवंड' नगर से 'हिंदुस्तान' के सिंध प्रांत में आए और हिंदू-मुसलमान दोनों के इष्ट बन गए। इनकी विचारधारा का केंद्रीय भाव है प्रेम/इश्क। इस्लाम का मूल संदश है 'तौहीद' यानि ईश्वर एक हैं -

    सर्वशक्तिमान, दयावान और छुपा हुआ। उससे एक होना इन सूफि़यों की मंजिल है। किसी भी प्रकार के कर्मकाड, मिथ्या आडंबर को ये लोग नकारते हैं। किताबी ज्ञान, पूजा-नमाज़, माला-तसबीह, छापा-तिलक, मंदिर-मस्जिद, काबा कैलाश इनके लिए महत्वहीन हैं। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण से इनका इश्क परवान चढ़ता है। द्वैत की भावना मिटाकर तौहीद (अद्वैत) का अनुभव गुरु ही करवाता है। संत मंसूर को बोटी-बोटी काट डाला गया पर उन्होंने 'अनहलक' (मैं ही ब्रह्म हूं) कहना नहीं छोड़ा।

    सभी सूफ ़ी संत जातिगत भेदभाव से ऊपर हैं। बुल्लेशाह स्वयं सैयदवंश के थे। उनके मुर्शिद इनायतशाह 'अराई' थे। पूरे परिवार से विद्रोह करके वे उनके मुरीद हो गए।

    जिक्र अथवा नामस्मरण का यहां बहुत महत्व है। अल्लाह को याद करते-करते वे बेसुध होकर नाचने लगते हैं। इसी को 'समा' कहा जाता है। इस परंपरा का आरंभ रूमी ने किया। कव्वाली और शेरो-शायरी के साथ अमीर खुसरो ने भारत में इसे लोकप्रिय बनाया। लेबा चोग़ा, अंगरखा, गोल टोपा इनकी वेशभूषा है। कुछ सूफ़ी अल्लाह को पुरुष तो कुछ स्त्री के रूप में देखते हैं। इस रास्ते पर भौतिक अस्तित्व मिटा कर भक्त 'फ़ ना' हो कर खुदा में समा जाता है यह 'बका' की स्थिति है। कई बार 'इश्के-मजाज़ी' (लौकिक प्रेम) से 'इश्के हकीकी' (अलौकिक प्रेम) तक पहुंचना भी उद्देश्य हो जाता है।

    भारत में यहां ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के साथ हुआ। अज़मेर में इन की दरगाह तीर्थ-स्थान बन गई है। निज़ामुद्दीन औलिया यहां के प्रसिद्ध सूफ़ी हैं। अमीर खुसरो इन्हीं के शिष्य थे।

    आज जब जाति-भेद, धर्म-भेद मध्यकाल की भाति फि र से सर उठा रहे हैं तब सूफ़ी विचारधारा की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।

    प्रेम ही ईश्वर है

    मीनाक्षी

    सूफी मत को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है। सूफी कुरान के उस पक्ष से प्रभावित थे, जो ईश्वर चिंतन और उन तक पहुंचने पर जोर देता था। एक चिंतक तारा चंद ने सूफी मत के पाच केंद्र माने हैं। 1.कुरान, 2.मोहम्मद साहब की जीवन यात्रा, 3.ईसाईयत और अफलातूनी मत, 4. हिंदू और बौद्ध मत 5.जरथुस्ट्र धर्म ।

    यद्यपि सूफी मत का आधार कुरान था,लेकिन भारतीय विचारधारा का इस पर गहरा असर पड़ा था। मूल इस्लाम या शर्रियत से सूफियों का सीधा संबंध नहीं माना जाता, लेकिन संप्रदाय के रूप में इसकी शुरुआत इस्लामी देशों से हुई थी ।

    सूफी कई वगरें में बंटे हैं। एक वर्ग सृष्टि का आरंभ विचार से मानता है, जबकि दूसरा वर्ग अंशावतारवाद से। अन्शावतारवाद मानने वालों का लक्ष्य फना या निर्वाण है। इस मंजिल को प्राप्त करने के लिए गुरु या पीर का होना जरूरी माना गया है। सूफीवाद में अल्लाह को माशूक के नजरिए से संबोधित कर प्रेम का सबसे बडा स्त्रोत माना गया है। ऐसे दर्शन वाले संप्रदाय में उदारता, सहिष्णुता और सौहार्द का होना लाजिमी है।

    सूफी संतों की खासियत रही है कि वह किसी धर्म की आलोचना नहीं करते और सूफी मजारों पर किसी भी धर्म के अनुयायियों के आने का विरोध नहीं करते। यही सोच, संस्कृति और खुलापन सूफी मजारों के दरवाजे सभी के लिए खोलती है।

    रोजा उनके लिए तप है, तो नमाज ध्यान लगाने का जरिया।

    अमीर खुसरो जैसे सूफी ने तो यहां तक लिख दिया कि प्रेम ने मुझे काफिर बना दिया।

    सूफी महिलाओं में राबिया, बीबी फातिमा, शाहजहां की बेटी जहांआरा का नाम बड़े अदब से लिया जाता है ।

    बाबा फरीद, वारिस शाह, निजामुदीन औलिया, हासिम शाह, बुल्ले शाह, पीर दाता गंज बख्श आदि.. महान सूफी संत हैं।

    इसी कड़ी में हजरत सखी लाल शाहबाज कलंदर भी आते हैं। > वैसे कलंदर रूहानियत ओहदा है, जैसे पीर, फकीर, कलंदर! यह ओहदा रूहानियत की एक अवस्था पर पहुंचने पर मिलता है।

    शाहबाज कलंदर का संबंध सूफियों के सौहार्दवादी वर्ग से था, जो शर्रियत से कोसों दूर रहता था।

    शाहबाज कलंदर के जन्म के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं, लेकिन 1324 में वह लाखों मुरीदों को छोड़कर चले गए। उनका वास्तविक नाम हजरत सैय्यद उस्मान था। लाल रंग का चोला पहनते थे इसलिए उनका नाम लाल कलंदर पड़ा। मन की दशा को छुपा कर रखने वाले और दिखावे से परहेज रखने वाले कलंदर माने जाते हैं । उनके कुछ गीत करोड़ो लोगों की जुबान पर है, जो वह अमूमन गाते थे। उनमें से एक था 'लाल मेरी पत रखियो..झूले लाल..'।

    स्वयं पर नियंत्रण

    बोधकथा

    कुरु देश की रानी बड़ी ही दुष्ट प्रकृति की थी। जब उसे पता चला कि बुद्धदेव उसके प्रदेश में आ रहे हैं, तो उसने सेवकों को उनका अनादर करने की आज्ञा दी। बुद्धदेव के नगर-प्रवेश करते ही लोगों ने उन्हें अपशब्द कहना शुरू कर दिया, पर बुद्धदेव शांत बने रहे। आखिर उनके प्रिय शिष्य आनंद से रहा नहीं गया। वह उनसे बोले, 'हमें यहां से चले जाना चाहिए। हमें ऐसे स्थान पर चले जाएं, जहां कोई हमारे साथ दु‌र्व्यवहार न करे।' बुद्ध ने कहा, 'यह जरूरी नहीं है कि हम जहां जाएंगे, वहां कोई हमारे साथ दु‌र्व्यवहार नहीं करेगा। जहां दु‌र्व्यवहार हो रहा हो, उस स्थान को तब तक नहीं छोड़ना चाहिए, जब तक वहां शांति स्थापित न हो जाए। व्यक्ति का व्यवहार संग्राम में बढ़ते हुए हाथी की तरह होना चाहिए। जिस प्रकार हाथी चारों ओर के तीरों को सहता रहता है, उसी तरह हमें दुष्ट पुरुषों के अपशब्दों को सहन करते रहना चाहिए।' उन्होंने आगे कहा कि सबसे उत्तम तो वह है, जो स्वयं को वश में रखे। किसी भी बात पर कभी भी उत्तेजित न हो।

    कथासार : अपमान पर उत्तेजित होने की बजाय स्वयं को संतुलित रखना बुद्धिमानी है।

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    सप्ताह के व्रत त्योहार

    22 फरवरी : विजया एकादशी व्रत।

    23 फरवरी : गोविंद द्वादशी व्रत।

    24 फरवरी : प्रदोष व्रत। ज्योतिर्लिग पूजा। ऋषि बोधोत्सव।

    26 फरवरी : स्नान-दान-श्राद्धादि की अमावस्या।

    27 फरवरी : फाल्गुन मास शुक्ल पक्षारंभ।

    28 फरवरी : फुलरिया दूज

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