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    जानसठ की मिट्टी में गर्वीले इतिहास की खुशबू

    By Edited By:
    Updated: Mon, 23 Apr 2012 02:10 AM (IST)

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    जानसठ (मुजफ्फरनगर)। खुद में इतिहास समेटे जानसठ की मिट्टी की सोंधी खुशबू आज भी बुलंदी की दास्तां बयां कर रही है। महाभारत कालीन कस्बे में जहां अशोक की लाट हिंदुस्तान के शिखर छू रहे मस्तक की निशानी है, वहीं इमारतें भी इतिहास की पुरसुकून दास्तां बयां कर रही हैं। हालांकि लाट के प्राचीन होने के पुख्ता सबूत नहीं मिलते, लेकिन बुजुर्ग इसके पुरातन होने की गवाही दे रहे हैं। वहीं सात दरवाजे, अठपहलू कुआं और सात मंजिला रानी का महल भी काफी चर्चित हैं।

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    इतिहास क्रूर हो तो आंखों से खुद ब खुद आंसू बह निकलते हैं और अगर गौरवमयी हो तो गर्वीला एहसास भी स्वत: ही सीना फुला देता है। ऐसा ही इतिहास समेटे हैं जानसठ कस्बा, जिसके नाम एक नहीं सैकड़ों उपलब्धियां दर्ज हैं। कस्बे में बसायच मार्ग पर श्री ज्ञानेश्वर सिद्धपीठ महादेव मंदिर प्राचीन काल का निर्मित माना जाता है। बताते हैं कि कौरव-पांडव युद्ध टालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों को यहीं बुलाकर वट वृक्ष के नीचे सुलह-समझौता कराना चाहा था। बताया जाता है कि क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने कहा था कि कौरवों का ज्ञानभ्रष्ट हो गया है। तभी से कस्बे का नाम ज्ञानभ्रष्ट पड़ा जो अब जानसठ हो गया है। मंदिर के ठीक सामने अशोक की एक लाट भी है। बुजुर्ग बताते हैं कि खुद अशोक ने यह लाट बनवाई थी। खुदाई के दौरान यह लाट निकली थी। माना जाता है कि यहां कभी टीला था, जिसे माता के रूप में पूजा जाता था। यहां दशहरे का मेला भी लगता है। जब इस टीले की खुदाई कराई गई तो अशोक की लाट निकली।

    सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम

    किसी समय कस्बे के चारों ओर दीवार बनी थी। इसमें सात दरवाजे थे। इन्हें आज भी किल्ली दरवाजे के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में तीन दरवाजे मौजूद हैं, अगर कोई दुश्मन कस्बे में घुसता तो वह चारों तरफ से घिर जाता था। बताया जाता है कि कस्बे में अष्ठभुज कुंआ भी था, जिसे अठपहलू कुंए के नाम से जाना जाता था। इसका निर्माण अशोक के शासनकाल का माना जाता है।

    रानी का महल

    सेवानिवृत्त शिक्षक जयप्रकाश कांबोज का कहना है कि बुधबाजार में जो विशाल दीवार जर्जर हालत में खड़ी है वह राजा बाहू के महल की है। बताते हैं कि यह महल सात मंजिला था, जोकि आधा जमीन नीचे और आधा ऊपर बना हुआ था। इस महल की रानी सुबह-दोपहर-शाम महल की छत से हस्तिनापुर की गंगा दर्शन करने के बाद ही भोजन ग्रहण करती थीं।

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