शाह गुलाम बोलन को अंग्रेजों ने दी थी काले पानी की सजा
मुरादाबाद : स्वाधीनता आंदोलन के साथ मुरादाबाद गंगा-जमुनी तहजीब का भी केंद्र रहा है। चाहे
मुरादाबाद : स्वाधीनता आंदोलन के साथ मुरादाबाद गंगा-जमुनी तहजीब का भी केंद्र रहा है। चाहे वह 1957 की क्रांति हो या फिर 1947 का संग्राम। उर्दू के साहित्यकार हाली ने लिखा है कि जिला मुरादाबाद पर अंग्रेजों का आतंक कुछ ज्यादा ही था। इस वजह से यहां के नवाब, रईस और आमजन ने देश से वफादारी का सबूत पेश किया। इसमें सूफी और बुजुर्गो की मेहनत भी अहम थी। सूफियों ने देशभक्ति की अलख जगाने के साथ ही वतन परस्ती का सबूत भी पेश किया। ¨हदू और मुसलमानों ने देश के लिए अंग्रेजों से मोर्चा संभाला और आजादी तक कोई कमी नहीं छोड़ी।
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अंग्रेजों की मक्कारियों को दिया मुंहतोड़ जवाब
हजरत शाह बुलाकी साहब की दरगाह चक्कर की मिलक में स्थित है। शाह बुलाकी साहब का जन्म कस्बा स्योहारा जिला बिजनौर में 1631 ई. में हुई। निधन 1727 ई में हुआ। 1857 में दरगाह क्रांतिकारियों का केंद्र बनी थी। हजरत शाह बुलाकी साहब के पड़पोते शाह गुलाम बोलन ने जंगे आजादी में सक्रिय योगदान दिया। उन्होंने क्रांतिकारियों के लिए हर समय खाने का प्रबंध कर रखा था। उन लोगों के रहने का प्रबंध भी किया जाता था। जिनके घर लुट चुके थे, उनके लिए पूरी मदद की जाती थी। जब अंग्रेज अपनी मक्कारी और दगाबाजी से दोबारा काबिज हुए तो शाह गुलाम बोलन को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें काले पानी की सजा सुना दी। 1860 ई में उनकी मौत हुई। दरगाह हाफिज साहब कटघर के सात बेटे थे। 1857 की क्रांति में सक्रिय रहे। नवाब हसन अली खां, नवाब हाफिज अली हुसैन खां, नवाब कासिम खां, नवाब मदद हुसैन खां उर्फ मौलाना मियां, नवाब इनायत हुसैन खां, नवाब हिदायत अली खां, नवाब कासिम अली खां को गिरफ्तार किया गया। सभी को छह-छह महीने की सजा मिली। इस खानदान के नवाब असद अली खां को फांसी की सजा और उनके बेटे नवाब अब्बास अली खां को काले पानी सजा दी गई, जहां उनकी शहादत हुई।
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रामगंगा नदी पार तकरीर करते हुए किया था गिरफ्तार
दरगाह शाह मुकम्मल साहब की पैदाइश 1738 ई में और इंतकाल 1806 ई में हुआ। इनकी दरगाह ईदगाह के पीछे स्थित है। मुरादाबाद में ब्रास का कारोबार आपकी वजह से ही फला-फूला। दरगाह सज्जादानशीन अहसान अली दश सेवा के भाव से पुलिस में भर्ती हुए थे। बेहतरीन काम की वजह से शहर के कोतवाल भी बना दिए गए। अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादती को देखकर उन्होंने 1905 में इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, मोती लाल नेहरु, हकीम अजमल खां के सहयोग से स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल हुए। खिलाफत तहरीक में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू कर दी। रामगंगा पार क्रांतिकारी तकरीर के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में ही मुकदमे की खानापूरी हुई और धारा 147, 379, 332 के तहत सजा सुनाई गई। छह मई 1921 से चार फरवरी 1922 तक मुरादाबाद की जेल में बंद रहे। इसके अलावा कुछ सजा लाहौर की जेल और कैद के दौरान खेत जोतने में बैल की जगह उन्हें बांधा जाता था। इस वजह से उनकी आंतों में जख्म हो गए और इस वजह से उनका इंतेकाल हो गया। शाह मुकम्मल साहब के उर्स के पहले दिन देश की स्वाधीनता के लिए बलिदान देने वालों को याद किया जाता है।
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बोले सज्जादानशीन
दरगाहों पर उर्स के साथ स्वाधीनता दिवस पर देश पर मिटने वालों को याद किया जाता है। क्रांतिकारियों के लिए दरगाहों पर रहने के साथ ही लंगर निरंतर जारी रहता था। आज भी दरगाहों से एकता और भाईचारे का पैगाम दिया जाता है।
सैयद शिब्ली मियां, सज्जादानशीन दरगाह शाह मुकम्मल साहब
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