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    प्रेमचन्द की विरासत का सवाल आज भी अनुत्तरित

    By JagranEdited By:
    Updated: Mon, 30 Jul 2018 07:22 PM (IST)

    मुरादाबाद : बाजारीकरण और निजीकरण द्वारा हाशिए पर स्थित किसान-मजदूर, स्त्री, दलित को बेदखल

    प्रेमचन्द की विरासत का सवाल आज भी अनुत्तरित

    मुरादाबाद : बाजारीकरण और निजीकरण द्वारा हाशिए पर स्थित किसान-मजदूर, स्त्री, दलित को बेदखल किया जा रहा है जल, जंगल और जमीन से। जिन शहरों पर बहुराष्ट्रीय कंनियों का दबाव है वहां देह-व्यापार के साथ स्त्री उत्पीड़न भी सरेराह हो रहा है। रोजी-रोटी को मुहाल दलित बाजारीकरण और निजीकरण की चक्की में पिस रहा है। इन वर्गो की समस्याएं भले ही मीडिया के माध्यम से कभी-कभी चर्चा में आ जाएं किन्तु स्थायी समाधान का प्रयास न तो सरकार द्वारा किया जा रहा है। आज कोई ऐसा रचनाकार नहीं दिखाई देता जो इन वर्गो की समस्याओं को सामूहिक रूप से शिद्दत के साथ उठाए। किन्तु आजादी से पूर्व कथाकार प्रेमचंद थे।

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    अब तो प्रगतिवादी कथाकार प्रेमचद की जयंती भी कर्मकाण्डी और रस्मअदायी अंदाज में मनायी जाने लगी है। सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं समारोह आयोजित करके इतिश्री मान लेती हैं। उत्तर आधुनिक होने का दावा करने वाले समाज में जब गरीब, किसान ऋण के दबाव में आत्महत्या करने को विवश हो, खाद्यान्न के गोदाम में शराब रखा हो, और खाद्यान्न बाहर सड़ रहा हो ऐसे में प्रेमचंद की याद आना और उनके साहित्य में आकर्षण का बढ़ जाना स्वाभाविक है।

    कर्ज की समस्या से आज भी किसान मुक्त नहीं

    'गोदान' और 'सवा सेर गेहूं' में कर्ज की समस्या को उठाया गया है उससे भारतीय किसान आज भी मुक्त नहीं है। आपकी रचनाधर्मिता के केन्द्र मे गरीब, किसान और मजदूर रहा है। कथानायक की प्रचलित अवधारणा को चकनाचूर करते हुए आपने दीन-दलित और शोषित को नायकत्व सौंपा। अत: प्रेमचंद जादूयी नहीं जमीनी कथाकार हैं।

    प्रेमचंद्र का लेखन भविष्य की समस्याओं पर था

    प्रेमचंद का लेखन तत्कालीन समस्याओं पर ही नहीं था बल्कि भविष्य की संभावनाओं पर भी था। तभी तो आजादी से पूर्व कहते है कि गद्दी पर जान की जगह गोविन्द बैठ जाय तो कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने भारतीय राजनेताओं के कार्य एवं व्यवहार का बड़ा ही सटीक पूर्वानुमान लगाया था। आजादी के बाद अमीरी-गरीबी का फासला बढ़ रहा है। एक ओर गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर हमारे देश के अरबपति विश्व के अरबपतियों को टक्कर दे रहे हैं। हाल ही में आई योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र में 28 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र में 22 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले गरीब नहीं हैं। गरीबों की मदद करना तो दूर सरकार उन्हें गरीब के रूप में स्वीकार भी नहीं करना चाहती है। कफन कहानी के घीसू और माधव की आत्मागरीबी, बेगारी और बेरोजगारी से इतनी जर्जर-जर्जर हो गई है कि उनके अन्दर न तो रिश्ते और अपनत्व का मोह बचा और न ही धर्म-संस्कार के प्रति श्रद्धा का भाव। गोदान का होरी कहता हैं कि भाई हम राज नहीं चाहते, भोग नहीं चाहते खाली मोटा-झोटा पहनना और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सधता। प्रेमचंद के कथा सहित्य के दूसरे पक्ष में शहरी सुविधा सम्पन्न रायसाहब, मालती और डाक्टर चढ्डा हैं जिनके सामने गरीबी, दरिद्रता और छूआछूत की कोई समस्या नहीं।

    समस्याओ और अंतद्र्वद्व के चित्राकन में भी महारथ हासिल

    कालजयी कथाकार को इस वर्गो की समस्याओ और अंतद्र्वद्व के चित्राकन में भी महारथ हासिल है। भारतीय संविधान में अस्पृश्यता को अपराध मना गया है। फिर भी संविधान लागू होने के पचास वर्ष बाद तक देश के विभिन्न हिस्सों से खबर आती रहती है कि दलित महिला द्वारा बनाया गया मिड-डे-मील स्कूली बच्चों ने खाने से इन्कार किया। दलितों की बस्ती को जलाया गया। दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोका गया, सर्वजनिक कुएं से पानी लेने एवं मंदिर में प्रवेश से रोका गया।

    प्रेमचंद्र ने दलितों की एक-एक समस्या को चुन-चुनकर रचा

    प्रेमचंद ने दलितों की एक-एक समस्या को चुन-चुन कर रचना का आधार बनाया है। 'ठाकुर का कुआं' कहानी में दिखाया गया कि किस प्रकार सवर्ण समाज के बीच दलित शुद्ध पानी के लिए तरसता-तड़पता है। सामंती व्यवस्था के भय और आतक से ही गंगी के हाथ से डोर छूट जाती है और घड़ा कुएं में चला जाता है। 'मंदिर' कहानी पुरोहिती व्यवस्था के प्रपंच पर व्यंग्य है। इसमें सुखिया को मनौती करने और मंदिर प्रवेश से रोका जाता है। तो वह प्रश्न करती है कि 'क्या भगवान ने हमको को नहीं सिरजा है? यहां कहानी की मुख्यपात्र अछूत-विधवा सुखिया द्वारा दलितों के सन्दर्भ में उठाया गया प्रश्न आज भी कम प्रासंगिक नहीं है। प्रेमचंद के दलित और स्त्री पात्र सशक्त और स्वाभिमानी हैं। यह बात काबिलेगौर है कि उस समय भारतीय समाज में दलित एवं स्त्री विमर्श का कोई आन्दोलन नहीं था। 'घासवाली' कहानी की नायिका मुलिया ठाकुर चैन सिंह को बेचैन कर देती है- अहंकार और शारीरिक शोषण की सामंती मनोवृत्ति को चुनौती देकर। चैन सिंह के अनाधिकार चेष्टा का दम्भ के साथ विरोध करते हुए कहती है कि 'बोलो! क्या समझते हो कि (मेरा पति) महावीर की देह में लहु नहीं है। उसे लज्जा नहीं है, अपने मर्यादा का विचार नहीं है?'

    मजदूरी करने वाली दलित स्त्रियों की स्थिति कभी अच्छी नहीं रही

    कृषि क्षेत्र में मजदूरी करने वाली दलित स्त्रियों की स्थिति कभी अच्छी नहीं रही। आर्थिक के साथ शारीरिक शोषण बदस्तूर चलता रहा है। प्रेमचंद को 'सामंतों का मुंशी' कहने वालों को 'दूध का दाम', 'सदगति', 'सौभाग्य के कोड़े', 'मन्त्र' आदि कहानियों का तद्-युगीन परिवेश में पुनर्मूल्याकन करना चाहिए। प्रेमचंद जितने बड़े यथार्थवादी थे उतने ही बड़े मनोवैज्ञानिक रचनाकार भी। 'ईदगाह' कहानी में बालमनोविज्ञान का चित्रण है तो 'मंदिर' में दुखी माँ के हृदयगत भावों को मूर्तरूप प्रदान किया गया है। 'दो बैलों की कथा' में मूक जानवरंों के आपसी लगाव और साथ-साथ रहने के प्रेमभाव को आवाज प्रदान की गयी है। रसखान, रहीम एवं सूफी कवि हिन्दू समाज की कथाओं को आधार बनाकर रचना किये। बहुत समय बाद प्रेमचंद अपने कथा-संसार में मुस्लिम समाज एवं पात्रों को यथोचित स्थान और सम्मान देते हुए उस कर्ज को अदा किया। 'ईदगाह', 'पंचपरमेश्वर' जैसी अनेक कथाओं एवं 'सांप्रदायिकता और संस्कृति' जैसे निबंधों से गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद को मुस्लिम समाज एवं भाषा के साथ उनकी संस्कृति की भी गहरी समझ थी। आज जब क्षेत्रीयता, भाषाई संघर्ष और सांप्रदायिक दंगे बढ़ रहे हैं तो इस कालजयी कथाकार को क्यों और किस प्रकार भूला जा सकता है?

    राजशाही व्यवस्था का आइना था सोजे वतन

    प्रेमचंद के प्रथम कहानी संग्रह 'सोजे वतन' के प्रकाशन और ज़फ्ती के बाद धमकी भरा अदालती आदेश सुनाया गया कि 'तुम्हारी कहानियों में 'सिडीशन' भरा हुआ है। अपने भाग्य को बखानों कि अँग्रेजी की आलमदारी में हो। मुगलों का राज होता, तो तुम्हारे दोनों हाथ काट लिये जाते।' इसके बाद भी प्रेमचंद का सत्ताविरोधी लेखन आजीवन जारी रहा। जातिवादी-वर्णव्यवस्था की खिल्ली उड़ाते रहे। पद-पादशाही और पुरस्कार के मोह से मुक्त होकर। राजशाही व्यवस्था का अंग बनकर राजधानी में रहते हुए रचना करना इन्हें स्वीकार्य नहीं था। समकालीन रचनाकारों को प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए। भारत वर्ष के वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक एवं साहित्यिक परिदृश्य को देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्रेमचंद की विगत की महत्ता एवं वर्तमान अर्थवत्ता कम नहीं होने वाली है। दो दशक पूर्व प्रो. शिवकुमार मिश्र द्वारा उठाया गया प्रेमचंद की विरासत का सवाल आज भी अनुत्तरित है।

    - डॉ. चन्द्रभान सिंह यादव

    सहायक प्रोफेसर-¨हदी विभाग,

    केजीके (पीजी) कॉलेज

    मुरादाबाद