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    पाक‍िस्‍तान में रहकर भी द‍िल से ह‍िंदुस्‍तानी बने रहे शायर जाॅन एल‍िया, यहां पढ़ें जीवन के रोचक क‍िस्‍से

    By Narendra KumarEdited By:
    Updated: Tue, 14 Dec 2021 01:06 PM (IST)

    शायर जाॅन एल‍िया अमरोहा में अपने स्वागत से चिढ़ते थे कहते थे कि स्वागत तो मेहमान का होता है वह तो यहीं के हैं। इसी को लेकर उन्होंने शायरी गढ़ी थी- मिलकर तपाक से हमें न कीजिए उदास खातिर न कीजिए कभी हम भी यहां के थे।

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    शायर ने ऋषि-मुनियों की तरह अपने बाल बढ़ा लिए थे।

    मुरादाबाद [अनिल अवस्थी]। Shayar Jaun Elia News : दुनिया के प्रख्यात शायरों में शुमार जाॅन एलिया कराची में रहकर भी हिंदुस्तान में रचे-बसे रहे। उनकी शायरी में भी अमरोहा से बिछड़ने की टीस झलकती है। 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे जाॅन एलिया अमरोहा पहुंचते ही सबसे पहले यहां की मिट्टी को माथे पर लगाकर सजदे करते थे। उनकी भांजी हुमा बताती हैं कि भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होकर ही उन्होंने ऋषि-मुनियों की तरह अपने बाल बढ़ा लिए थे।

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    अमरोहा का मुहल्ला लकड़ा की गलियां शायर जाॅन एलिया की अनगिनत यादें समेटे हैं। एक निजी कार्यक्रम में हिस्सा लेने अमरोहा पहुंची जाॅन की भांजी हुमा रिजवी भी बात छिड़ते ही अपने मामा की यादों में खो जाती हैं। बताती हैं कि उनके चार मामा में जाॅन एलिया सबसे छोटे थे। बड़े मामा रईस अमरोहवी व सैयद मोहम्मद तकी दिल्ली में जंग अखबार में कार्यरत थे। बंटवारा होते ही यह अखबार करांची चला गया। इसके चलते जाॅन एलिया को छोड़कर तीनों मामा करांची चले गए। पिता सैयद शफीक हसन एलिया की मौत व बहन साहे जना नजफी की शादी के बाद जाॅन अकेले रह गए। इसी दौरान उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई। इलाज के लिए उनके भाईयों ने उन्हें करांची बुला लिया। इसके बाद न चाहते हुए भी जाॅन एलिया वहीं बस गए। वह हर वर्ष अमरोहा आते थे, ट्रेन से उतरते ही स्टेशन की मिट्टी को चूमकर माथे से लगाते थे। अमरोहा में अपने स्वागत से चिढ़ते थे, कहते थे कि स्वागत तो मेहमान का होता है, वह तो यहीं के हैं। इसी को लेकर उन्होंने शायरी गढ़ी थी- मिलकर तपाक से हमें न कीजिए उदास, खातिर न कीजिए कभी हम भी यहां के थे। आठ नवंबर 2002 को करांची में उनके निधन के बाद पाक सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी किया।

    धूल में लिखते थे शायरी : हुमा बताती हैं कि जब वह 12 साल की थीं तभी जाॅन एलिया से मिलने करांची पहुंची थीं। मामा का कमरा बेतरतीब पड़ा था, मेज पर धूल, कापी-किताबें व पन्ने बिखरे पड़े थे। उन्होंने कमरे की सफाई कर कापी-किताबों को व्यवस्थित कर दिया। हुमा यह सोंचकर खुश थीं कि कमरा देखकर मामा खुश हो जाएंगे। वह बताती हैं कि रात में मामा जैसे ही अपने कमरे में घुसे वहां का नजारा देखकर चीख पड़े। अपनी बहन से बोले- नजफी तुम्हारी बच्ची ने हमें तबाह कर दिया। हुमा बताती हैं कि जो धूल उन्होंने साफ की थी, उस पर ही मामा ने कई शायरी लिख रखी थीं।

    लखनऊ से भी गहरा रिश्ता : हुमा लखनऊ स्थित इंदिरा नगर में अपने पति सैयद अख्तर जमाल रिजवी के साथ रहती थीं। पति नेशनल हैंडलूम कार्पोरेशन में वित्त निदेशक थे। जाॅन एलिया हुमा से मिलने लखनऊ आते थे, तो कई-कई दिन यहां रहते थे। वह बताती हैं कि एक बार उनकी बेटी ने मामा के बेतरतीब लंबे-लंबे बालों पर कंघी करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर रोक दिया कि इन जटाओं को मत सुलझाओ ये हमारे हिंदुस्तान के ऋषियों की वेशभूषा का प्रतीक हैं। हुमा बताती हैं कि लोगों के आग्रह पर उन्होंने पहला काव्य संग्रह शायद प्रकाशित कराया। इसके बाद उनके कई संग्रह गोया, लेकिन, यानी और गुमान प्रकाशित हुए।

    बान नदी पर बिताते थे घंटों समय : जाॅन एलिया के रिश्तेदार आदिल अमरोही बताते हैं कि जब जान अमरोहा आते थे तो बान नदी पर घंटों समय बिताते थे। करांची में समुद्र तट पर बैठकर उन्होंने शायरी की थी- इस समंदर पे तृष्णाकाम हूं मैं, बान तुम अब भी बह रही हो क्या। इसी तरह अमरोहा पहुंचने पर लिखा था- इस गली ने यह कहकर सब्र किया, जाने वाले यहां के थे ही नहीं। अब हमारा मकान किसका है, हम तो अपने मकां के थे ही नहीं।