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    Namami Vindhyavasini: आदि जगदंबा की मान्यता के पौराणिक साक्ष्य, साकार और निराकार रूप से भी परे हैं भगवती

    विंध्य पर्वत के विस्तार से डरे देवों के आग्रह पर अगस्त्य ऋषि के सामने विंध्य के दंडवत होने और ऋषि के दक्षिण भारत से लौटकर आने तक दंडवत मुद्रा में रहने का आदेश देते हैं। उसी कालक्रम में विंध्य के सिर के मध्य में देवी की स्थापना की महत्ता और महात्म्य की व्याख्या करते हुए निराकार के अलावा पांच साकार स्वरूपों के प्रादुर्भाव को भी निरूपित करते हैं।

    By Swati Singh Edited By: Swati Singh Updated: Sat, 09 Mar 2024 04:34 PM (IST)
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    आदि जगदंबा की मान्यता के पौराणिक साक्ष्य, साकार और निराकार रूप से भी परे हैं भगवती

    जागरण संवाददाता, मीरजापुर। विंध्यवासिनी देवी की मान्यता और महत्ता तो वर्तमान में जगजाहिर है मगर मीरजापुर के पुराने ज्योतिषीय गणना के विद्वान उनकी मान्यता पुराणैतिहासिक काल से भी पूर्व का मानते हैं। इसके संदर्भ में विविध प्रचलित कथाओं के साक्ष्य के तौर पर त्रिकोण पर देवी की मौजूदगी को स्वीकारते हैं।

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    विंध्याचल मंदिर के पास ही श्रृंगारिया महाराज वाली गलियों से होकर मंदिर के विपरीत दिशा में एक संकरी गली में स्वामी दीनबंधु वैसे तो पुरोहित परंपरा के अहम अंग रहे हैं लेकिन, अब वह विगत कुछ दशकों से धर्म आध्यात्म और ज्योतिष के लिहाज से शास्त्रीय परंपराओं की जड़ों पर अपना अध्ययन केंद्रित किए हुए हैं।

    "विंध्य सिरोधि निवासिनी" की माया

    स्वामी दीनबंधु के पुराने मीरजापुरी शैली में बने आवास पर प्रवेश करते ही सबसे पहले कमरे में देवी दुर्गा की प्रतिमा के साथ ही तीन दशकों से प्रज्ज्वलित अखंड ज्योति भी है। छोटे कमरे में आसन है और भक्तों के लिए मीरजापुरी दरियां भी बैठकी के लिए धर्मपथ पर बिछी हैं। विंध्यधरा की प्राचीनता पर सवाल उठते ही वह बोल पड़ते हैं- "यह धरा तो युगों पुरानी है, सच कहें तो सृष्टि के निर्माण के ठीक पहले से ही इसकी उत्पत्ति मानी जाती है।" इसके साक्ष्य के तौर पर पर ज्योतिषीय पत्रा दिखाते हुए "विंध्य सिरोधि निवासिनी" की मान्यता की स्थापित करने और इसके संदर्भ में कथा भी सुनाते हैं।

    ये है पौराणिक कथा

    कथा के अनुसार विंध्य पर्वत के विस्तार से डरे देवों के आग्रह पर अगस्त्य ऋषि के सामने विंध्य के दंडवत होने और ऋषि के दक्षिण भारत से लौटकर आने तक दंडवत मुद्रा में रहने का आदेश देते हैं। उसी कालक्रम में विंध्य के सिर के मध्य में देवी की स्थापना की महत्ता और महात्म्य की व्याख्या करते हुए निराकार के अलावा पांच साकार स्वरूपों के प्रादुर्भाव को भी निरूपित करते हैं।

    यथा- गणपति से गाणपत्य, विष्णु से वैष्णव, शिव से शैव, सूर्य से सौर्य, शक्ति से शाक्त। इसके ठीक बाद आगमी और दक्षिण मार्गी परंपराओं के क्रम को भी वह विस्तारित कर कल्याणी और गुणातीता के अतिरिक्त पराशक्ति व चंडी के समस्त बोध पाठ से उनकी स्थापना की मान्यता को बताते हैं। इसके साथ ही कौशिकी के रूप में देवी के अलग स्वरूप बनने और महागौरी की मान्यता की कड़ियों को भी वह जोड़ते हैं।

    देवी के रहस्यों और महत्ता को जानिए

    मधु-कैटभ के अतिरिक्त रक्तबीज के लिए रणक्षेत्र को रचने वाली देवी महामाया के क्षेत्र होने की महत्ता को बताते हैं। इसी क्रम में सत, रज, तम आदि गुणों को व्याख्यायित कर त्रिगुणात्मिका के रूप में देवियों की क्षेत्र में स्थापना के मान्यता की वृहद व्याख्या करते हैं। दुर्गा शप्तशती के पांचवें अध्याय व रहस्यत्रय में देवी के रहस्यों और विंध्यक्षेत्र की महत्ता को प्रतिष्ठापित करते हैं।

    आस्था के बिखरे साक्ष्यों को सहेजना की है चिंता

    वह इस बात से चिंतित भी नजर आते हैं कि समय के साथ देवी की तांत्रिक शक्तियों की आराधना या तंत्र साधना के इस ख्यात परिक्षेत्र को आध्यात्मिक शोध के केंद्र के तौर पर अभी ही नहीं आगे भी विकसित करने की कोई भी योजना नहीं है। इसके लिए बीएचयू में ही बेहतर विकल्प उपलब्ध है। धर्म मर्मज्ञों के लिए पग- पग पर आस्था के बिखरे साक्ष्यों को सहेजने की उनकी चिंता है ताकि आगे की पीढ़ियां आध्यात्म की चेतना के इस केंद्र की महत्ता को लोकहित में आगे भी बढ़ा सकें।

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