कौन हैं बाबा कासिम सुलेमानी? जिनके सामने मुगल बादशाह ने टेके थे घुटने, नमाज के वक्त अपने आप खुल जाती थी बेड़ियां
उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले के चुनार में स्थित बाबा कासिम सुलेमानी की दरगाह गंगा-जमुनी तहजीब का बेमिसाल नमूना है। हर साल होली के बाद लगने वाले चौती मेले में लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। दरगाह का इतिहास 400 साल पुराना है और इसके स्थापत्य कला का नमूना देखते ही बनता है। किंवदंतियों के अनुसार कैद में रहने पर बाबा की जंजीरें नमाज के वक्त अपने आप खुल जाती है।

संवाद सहयोगी, चुनार (मीरजापुर)। चुनार नगर के पश्चिमी उत्तरी छोर पर गंगा की इठलाती लहरों के पास अकबर और जहांगीर के समकालीन चार सौ सालों से अधिक पुरानी संत बाबा कासिम सुलेमानी की दरगाह गंगा-जमुनी तहजीब बेमिसाल नमूना है। हर साल होली के बाद लगातर पांच गुरूवार तक लगने वाले विख्यात चौती मेले में आसपास के दर्जनों जिलों और विभिन्न प्रदेशों से आने वाले जायरीन यहां आकर अपनी मन्नतों के लिए सजदा करते है।
साथ ही बाबा की मजार पर चादर चढ़ाकर फातिहा पढ़कर बाबा के दरबार में अपनी अर्जी लगाते है। यहां का शांत वातावरण है आकर्षण केंद्र। अगले पांच गुरुवारों तक चलने वाले इस मेले में बड़ी संख्या में जायरीनों के पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही है।
बाबा कासिम सुलेमानी का इतिहास
दरगाह के खलीफा सज्जादानशींन हाजी सैयद उर्ताउरहमान बताते हैं कि संत कासिम सुलेमानी का जन्म 1549 में पंजाब प्रांत के पेशावर में हुआ था। उनके बारे में कहा जाता है कि इनके पूर्वज भी संत थे इस लिए इंसानियत को धर्म मानने वाले संत कासिम सुलेमानी ने मात्र 27 साल की छोटी अवस्था में ही धर्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए मक्का मदीना, येरूशलम आदि की यात्रा की थी।
किंवदंतियों के अनुसार गद्दी पर बैठने के बाद बादशाह जहांगीर ने जंजीर और तलवार के साथ अपना फरमान भेजा था कि बादशाह का हुक्म मानते हुए जंग करो या फिर मेरी कैद में चले जाओ। संत ने जंग को दरकिनार कर इंसानियत के लिए कैद में रहने का रास्ता चुना। उन्होंने जंग से इंकार कर खुद की कैद स्वीकार कर ली। जिस पर बादशाह के हुक्म से कड़ी निगेहबानी के साथ 1015 हिजरी (सन 1606) को चुनार किले में संत कासिम सुलेमानी को कैद कर दिया गया।
कैद के कुछ दिन बाद बादशाह को उनके कारिंदों ने जहांगीर को जानकारी दी कि नमाज के वक्त उनकी जंजीर खुल जाती है। बाबा कासिम सुलेमानी कभी कारागार तो कभी बाहर नजर आते है। वह यहां वहां घूमते है, पहाड़ों की सैर करते है। यह सुन कर बादशाह को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने संत से माफी मांगते हुए उनको रिहा कर दिया और उनको दुर्ग के समीप जमीन भेंट स्वरूप दिया। जिस पर संत कासिम के मौत के बाद उनके स्वजनों ने एक भव्य दरगाह का निर्माण कराया। किंवदंतियों के अनुसार अंग्रेजी हुकुमत के दौरान यहां वाइसराय लार्ड कर्जन भी बाबा के दरबार में जा चुके है।
नक्काशी दरवाजा है स्थापत्य कला का नमूना
दरगाह का नक्काशी दरवाजा प्रस्तर कला का भव्य नमूना है इस विशाल द्वार पर सभी स्थान पर नक्काशी है तथा मेहराब पर खूबसूरत झालरें बनी हुई है। संत के मकबरे के गुम्बद की छत में जो चित्रकारी की गई है इसकी रंग सज्जा बहुत सुंदर है वह 400 से अधित साल बीतने के बाद भी खराब नहीं हुई हैं। इसके साथ ही यहां कासिम सुलेमानी और उनके बेटे की दरगाह है।
तीर छोड़ कर अपनी कब्र का स्थान किया था तय
प्रचलित कथाओं के अनुसार माना जाता है कि किले के भैरो बुर्ज पर स्थित आलमगीरी मस्जिद पर नमाज के वक्त इनकी हथकड़ी खुद ब खुद खुल जाती थी। इसी भैरो बुर्ज से एक दिन इन्होंने एक तीर छोड़ा और अपने शिष्यों से कहा कि यह तीर जहां गिरे वहीं इन्हें दफन किया जाए। तीर पहले उस स्थान पर गिर रहा था जहां बस्ती थी तब संत ने कहा टुक और (अर्थात थोड़ा आगे) इतना कहते ही तीर और थोड़ा आगे जाकर गिरा और उसी स्थान पर बाद में आगे जाकर उनका भव्य मकबरा बना कालांतर में तब से इस बस्ती को बाबा के टुक और शब्द की वाणी से इस बस्ती को टेकौर कहा जाने लगा।
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